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प्रस्तावना
२१
कविने जहाँ-तहाँ अपने कथनके समर्थनमें सूक्तियोंके भी प्रयोग किये हैं, जो अँगूठीमें नगीनेके समान मनोहारी एवं सुशोभित होती हैं । कवि उद्यमके प्रसंगमें कहता है
'विणु उज्जमेण णउ किंपि होइ' इसी प्रकार कवि पूर्वजन्मके पुण्यके बिना लक्ष्मीका आगमन सम्भव नहीं मानता। अतः वह कहता है कि
जो पुण्णेण रहिउ सिरि चहइ सो धणेण विणु सत्तु पसाहइ ।-भवि. २।१९ भाषा, शैली, रस एवं अलंकारोंकी दृष्टिसे भी यह रचना अपना विशेष महत्त्व रखती है। इसके प्रकाशनसे अनेक नवीन तथ्योंके प्रकाशमें आनेकी सम्भावनाएँ हैं।
वड्ढमाणचरिउ : समीक्षात्मक अध्ययन
१. मूल कथानक तथा ग्रन्थ-संक्षेप . कविने वड्ढमाणचरिउकी १० सन्धियोंमें वर्धमानके चरितका सांगोपांग वर्णन किया है। प्रस्तुत ग्रन्थको मूल कथा तो अत्यन्त संक्षिप्त है। उसके अनुसार कुण्डलपुर-नरेश राजा सिद्धार्थके यहाँ श्रावण शुक्ल छठींके दिन वर्धमानका बड़ा ही समारोहके साथ गर्भ-कल्याणक मनाया गया। चैत्र शुक्ल त्रयोदशीके दिन उनका जन्म हुआ। अगहन मासकी दशमीके दिन नागवनखण्डमें उन्होंने दीक्षा धारण की। वैशाख शुक्ल दशमीको ऋजुकूला तटपर केवलज्ञानकी प्राप्ति तथा उसी समय सप्त-तत्त्व और नव-पदार्थ सम्बन्धी उनके धर्मोपदेश तथा कार्तिक कृष्ण अमावस्याके दिन पावापुरीमें उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ। वड्ढमाणचरिउकी मूल कथा वस्तुतः ९वीं सन्धिसे प्रारम्भ होती है तथा १०वी सन्धिमें उन्हें निर्वाण प्राप्त हो जाता है, बाकोकी प्रथम आठ सन्धियोंमें नायकके भवान्तरोंका वर्णन किया गया है। उक्त ग्रन्थका सन्धि एवं कडवकोंके अनुसार सारांश निम्न प्रकार है:
कविने सर्वप्रथम काम-विजेता एवं चविध गतियोंके निवारक २४ तीर्थंकरोंको नमस्कार कर (१) ग्रन्थ-प्रणयनका संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया है और कहा है कि जैसवाल-कुलावतंस सेठ नरवर एवं सोमा माताके सुपुत्र नेमिचन्द्रके आग्रहसे उसने प्रस्तुत 'वडढमाणचरिउ' की रचना की है। इस प्रसंगमें कविने अपनी पूर्व-रचित 'चन्द्रप्रभचरित' एवं 'शान्तिनाथचरित' नामक रचनाओंके भी उल्लेख किये हैं (२)। ग्रन्थ के आरम्भमें कविने भरतक्षेत्र स्थित पूर्वदेशको समृद्धिका वर्णन करते हए (३) वहाँको सितछत्रा नामकी नगरीकी आलंकारिक चर्चा की तथा वहाँके राजा नन्दिवर्धन, रानी वीरमति एवं उनके पुत्र राजकुमार नन्दनका सुन्दर वर्णन किया है। जब वह कुछ बड़ा हुआ तब एक दिन अपने पिताकी आज्ञा लेकर वह क्रीड़ा-हेतु विविध प्राकृतिक सौन्दर्यसे युक्त नन्दन वन में गया (४-८)। संयोगवश उस वनमें उसने मनिराज श्रुतसागरके दर्शन कर भक्तिपूर्वक उनका उपदेश सुना और उनसे गृहस्थ-व्रत धारण कर वह घर वापस लौटा।
शुभ-मुहूर्तमें राजा नन्दिवर्धनने राजकुमार नन्दनको युवराज-पदपर प्रतिष्ठित किया ( ९-१०) और युवराजको संसारके प्रति उदास देखकर उसका प्रियंकरा नामकी एक सुन्दरी राजकुमारीसे विवाह कर दिया (११)।
युवराज नन्दन जब सांसारिकतामें उलझते हए-से दिखलाई दिये तभी राजा नन्दिवर्धनने एक भव्य समारोहका आयोजन किया और उसमें उसे राजगद्दी सौंप दी (१२) तथा वे स्वयं गृह-विरत रहकर सम्यक्त्वकी आराधना करने लगे। एक दिन जब राजा नन्दिवर्धन अपनी अट्टालिकापर बैठे हुए थे, तभी उन्होंने
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