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Uvavaiya Suttam Su. 10
- तीर्थंकर - श्रमण, श्रमणी श्रावक, श्राविका रूप चतुविध धर्म तीर्थं के संस्थापक, स्वयं संबुद्ध - स्वयमेव किसी की सहायता निमित्त के बिना सम्यग् बोध प्राप्त, पुरुषों में उत्तम - प्रधान, पुरुषसिंह - आत्म- शौर्य में पुरुषों में सिंह तुल्य, पुरुषवर- पुंडरीक - मनुष्यों में रहते हुए भी उत्तम, श्वेत कमल के सदृश निर्लेप, पुरुषवर- गन्धहस्ती - पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान अर्थात् जैसे गन्धहस्ती के पहुँचते ही सामान्य हाथी भाग जाते हैं, वैसे ही किसी क्षेत्र में उनके प्रविष्ट होते ही परचक्र, दुर्भिक्ष, महामारी आदि अनिष्ट दूर हो जाते थे, सभी प्राणियों के लिये अभयप्रद अर्थात् किसी भी प्राणी के लिये भय उत्पन्न नहीं करने वाले, चक्षु के समान श्रुतज्ञान देने वाले अर्थात् आन्तरिक नेत्र प्रदायक, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप मोक्षमार्ग के उद्बोधक, जिज्ञासु एवं मुमुक्षु आत्माओं के लिये आश्रयभूत, आध्यात्मिक जीवन के ( अमरता रूप भाव प्राण के ) दानी, दीपक के समान समस्त वस्तुओं के प्रकाशक, या संसार-समुद्र में दुःख अशान्ति के दावानल से संतप्त व्यक्तियों के लिये द्वीप के सदृश आश्रय स्थान, आश्वासन - धैर्य के कारण अनर्थों के नाशकं होने से त्राण रूप, उद्देश्य की प्राप्ति में कारण भूत होने से शरण रूप, दुःख पूर्ण अवस्था से सुखपूर्ण अवस्था में लाने वाली गति रूप, संसार रूपी गर्त में गिरते हुए प्राणियों के लिये आधार भूत, चार अन्त — सीमा युक्त पृथ्वी के स्वामी अर्थात् अधिपति, चक्रवर्ती के समान धार्मिक जगत् में उत्तम - प्रधान अधिनायक, अप्रतिहतबाधा या आवरणरहित वर श्रेष्ठ ( अनुत्तर - प्रधान ), ज्ञान दर्शन के धारक, अज्ञान आदि आवरण रूप छद्म से अतीत अर्थात् ज्ञान दर्शन आदि आत्मगुणों को प्रगट नहीं होने देने वाले कर्म विनष्ट हो गये, जिन - राग-द्वेष के विजेता, ज्ञायक - राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञांता, ज्ञापक - राग-द्वेष आदि को जीतने का मार्ग बताने वाले, तीर्ण - संसार - समुद्र को पार कर जाने वाले, तारक - भव्य जीवों को संसार सागर से पार उतारने वाले, मुक्तकर्म ग्रन्थ से छूटे हुए, मोचक – दूसरों को कर्म-ग्रन्थि से छुड़ाने वाले, बुद्ध
प्राप्त किये हुए, बोधक - अन्य जीवों को बोध देने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव - कल्याणमय, अचल - स्थिर, अरुज - नीरोग, अनन्त - अन्तरहित, अक्षयक्षयरहित, अव्याबाध — बाधारहित, अपुनरावर्तक — जहाँ से पुनः संसार में आगमन नहीं होता, ऐसी सिद्धगतिनामधेयस्थान — सिद्धावस्था नामक स्थिति को पाने के लिये सहज भाव से, पूजनीय, राग-द्वेष के विजेता, केवल - ज्ञान, केवल दर्शन युक्त ।
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