Book Title: Uvavaia Suttam
Author(s): Ganesh Lalwani, Rameshmuni
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 311
________________ 282 Uvavaiya Suttarm Su.41 जैसे कि कोई अनगार-श्रमण ऐसे होते हैं. जो ई-गमन, हलन, चलन आदि क्रिया, भाषा में समित–सम्यक् रूप से प्रवृत्त अर्थात् यतनाशील होते हैं...यावत् निर्ग्रन्थ-प्रवचन-वीतराग देव की वाणी, जिनेश्वर की आज्ञा को सम्मुख रखते हुए विचरण करते हैं अर्थात् ऐसे परम-पावन आचार युक्त जीवन का सम्यक् रूप से निर्वाह करते हैं। इस प्रकार की चर्या द्वारा संयमी जीवन का निर्वाह करने वाले उन भगवन्त-पूजनीय श्रमणों में से कइयों को अनन्त अन्तरहित या अनन्त-पदार्थो के यथार्थ स्वरूप... .. यावत् केवल ज्ञान और केवल दर्शन समुत्पन्न होता है। For instance, there may be some monks who are homeless, who follow the prescribed code in movement, in their speech, till who live on keeping in view the words of the Nirgranthas. Some from among those, while living as aforesaid, come to acquire supreme knowledge and faith.. ते बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणंति । पाउणित्ता भत्तं पच्चखंति । पच्चक्खित्ता बहूई भत्ताई · अणसणाई छेदेन्ति । छेदित्ता जस्सट्टाए कोरइ णग्गभावे अंतं करेंति । . वे बहत वर्षों तक केवली-पर्याय का पालन करते हैं अर्थात् कैवल्यअवस्था में विचरण करते हैं। वे अपनी गृहीत पर्याय का पालन कर अन्ततः आहार का त्याग करते हैं। परित्याग कर बहुत से भोजन-काल अनशन द्वारा विच्छिन्न करते हैं। अर्थात् बहुत दिनों तक निराहार रहते हैं। वैसा कर जिस लक्ष्य के लिये नग्न भाव-शारीरिक संस्कारों के प्रति अनासक्ति-औदासीन्य-विरक्त बने थे...यावत् सब दुःखों को अन्त-विनष्ट कर देते हैं। Then they live for many years in that state, the state of a Kevalin or Omniscient personality, after which they enter into

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