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Uvavaiya Suttam Sū. 43
से णं एएणं उवाएणं पढममणजोगं णिरंभइ । मणजोगं णिरुभित्ता वयजोगं णिरंभइ । वयजोगं णिरुभित्ता कायजोगं णिरुभइ । कायजोगं णिरंभित्ता जोगणिरोहं करेइ ।
इस उपाय – उपक्रम द्वारा वे पहले मनोयोग - मानसिक क्रिया का निरोध करते हैं । मनोयोग का निरोध कर वाक् योग - वाचिक क्रिया का निरोध करते हैं । वचन योग का निरून्धन कर काययोग — कायिक क्रिया का निरोध करते हैं । काययोग का निरोध कर सर्वथा रूप से योग निरोध करते हैं अर्थात् मन, वचन तथा काया से सम्बन्धित प्रवृत्ति मात्र को रोकते हैं ।
In this manner, first of all, he stops, the activity of the mind, thereafter the activity of the speech,. thereafter the activity of the body. In this way, he stops all activities.
जोगणिरोहं करेत्ता अजोगत्तं पाउणति । अजोगत्तं पाउणित्ता इसिंहस्सपंचक्खरउच्चारणद्धाए असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसि पडिवज्जइ ।
इस प्रकार योग- मन, वचन और कार्य की प्रवृत्तिमात्र का निरोध कर वे अयोगत्व - अयोगी अवस्था प्राप्त करते हैं। अयोगावस्था प्राप्त कर ईषत् स्पृष्ट पांच ह्रस्व अक्षर – अ, इ, उ, ऋ, लृ, समयवर्ती अन्तर्मुहूर्त तक होने वाली शैलेषी अप्रकम्प दशा प्राप्त करते हैं ।
के उच्चारण के संख्यात अवस्था - मेरुपर्वत के
'सदृश
Having stopped activities, he attains the state of non-activity. Having attained this state, he is in a state of rock-like steadfastness, no longer than the time normally taken to utter five short vowels or the antarmuhurtas of innumerable time-units.