Book Title: Uvavaia Suttam
Author(s): Ganesh Lalwani, Rameshmuni
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 271
________________ Uvavaiya Suttam Sa. विहरइ णवरं ऊसियलिहे अवंगुदुवारे चियत्तंतेउरघरदारपवेसी ण वुच्चइ। गौतम : हे भगवन् ! अम्बड़ परिव्राजक देवानुप्रिय-आपके पास मण्डित होकर-दीक्षित होकर आगार अवस्था-गृहवास से निकल कर, अनगार अवस्था श्रमण जीवन प्राप्त करने में समर्थ है या नहीं ? महावीर : गौतम ! ऐसा संभव नहीं है। अर्थात वह श्रमण धर्म में दीक्षित नहीं होगा। अम्बड़ परिव्राजक श्रमणोपासक-श्रावक है। उसने जीव, अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को समझ लिया है।... यावत् वह अपनी आत्मा को ( संयम तथा तप से ) भावित-अनुप्राणित करता हुआ विचरण करता है। उच्छित-स्फटिक-जिसके घर के किवाड़ों में आगल नहीं लगी हुई है, अप्रावत-द्वार-जिसके घर का दरवाजा खुला रहता हो, त्यक्तान्तःपुर-गृहद्वार-प्रवेश- संभ्य जनों के आवागमन के कारण घर के भीतरी भाग में उनका प्रवेश जिसे प्रिय लगता हो-ये तीन विशेषण अम्बड़ परिव्राजक के लिये प्रयोज्य नहीं हैं-लाग नहीं होते हैं। क्योंकि अम्बड़ परिव्राजक संन्यासी के वेष में श्रमणोपासक हुआ। गृही से नहीं, वह स्वयं भिक्षुक था। उसके घर नहीं था। Gautama : Bhante! Is it possible for Amvada Parivrājaka to get himself tonsured by thy hand, give up his home and join the order of monks ? ._Mahavira : No, it is not. But, Gautama, Amvada Parivrājaka will be a worshipper of the śramaņa path and live on enriching himself with the knowledge of soul and matter, and be without a home, etc. ( applicable to a householder follower). अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए जाव...परिग्गहे णवरं सव्वे मेहुणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए।

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