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उववाइय सुत्तं सू० २०
अणच्चासायणया अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणच्चासायणया आयरि याणं अणच्चासायणया एवं उवज्झायाणं थेराणं कुलस्स गणस्स संघस्स किरिआणं संभोगिअस्स आभिणिबोहियणाणस्स सुअणाणस्स ओहिणाणस्स मणपज्जवणाणस्स केवलणाणस्स । एएसिं चेव भक्ति - बहुमाणे एएसिं चेव वण्णसंजलणया । से तं अणच्चासायणाविणए ।
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वह अनत्याशातना विनय क्या है ? वह कितने प्रकार का है ?
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अनत्याशातना विनय के पैंतालीस भेद कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं : (१) अर्हतों ( अरिहंतों ) की आशातना नहीं करना, आत्म- गुणों का घातक नाश करने वाले अवहेलनापूर्ण कार्य नहीं करना, (२) अरिहन्तों के द्वारा बतलाये गये धर्म की आशांतना नहीं करना, (३) आचार्यों की आशातना नहीं करना, (४) उपाध्यायों की आशातना नहीं करना, (५) स्थविरों - ज्ञान और चारित्र में वृद्धिप्राप्त, वयोवृद्ध श्रमणों की आशातना नहीं करना, (६) कुल की आशातना नहीं करना, (७) गण की आशातना नहीं करना, (८) संघ की आशातना नहीं करना, ( ९ ) क्रियावान् की आशातना नहीं करना, (१०) सांभोगिक – जिस गच्छ के श्रमण के साथ वन्दन, नमन, आहार-आचार आदि पारस्परिक व्यवहार हों, उस गच्छ के श्रमण या समान आचार वाले श्रमण की आशातना नहीं करना, (११) आभिनिबोधिक - मतिज्ञान की आशातना नहीं करना, (१२) श्रुतज्ञान की आशातना नहीं करना (१३) अवधिज्ञान की आशातना नहीं करना, (१४) मनः पर्यव ज्ञान की आशातना नहीं करना, (१५) केवल ज्ञान की आशातना नहीं करना ।
इन पन्द्रह की भक्ति - उपासना, बहुमान, सद्गुणों के प्रति विशेष भावानुराग रूप पन्द्रह भेद तथा इन पन्द्रह की यशस्विता, प्रशस्ति और गुणोत्कीर्तन रूप और पन्द्रह भेद इस प्रकार अनत्याशातना विनय के कुल मिला कर पैंतालीस भेद होते हैं ।
What is anatyāśātanā vinayā ?
It has forty-five types, viz., not to behave wrongly towards