________________
उववाइये सुत्तं सू० २७
129
perfected, while wandering from village to village, has, in the course of his wandering inission, arrived here, camped here and is staying here. He is camped in the Purņabhadra temple Outside the city of Campā, with appropriate resolve, enriching his soul by restraint and penance.
तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोअस्स वि सवणताए किमंग पुण अभिगमण-वंदणणमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ?
__ "हम लोगों के लिये यह महान् लाभप्रद है कि-हे देवानुप्रियों! अरिहन्त के गुणों से युक्त ऐसे अर्हत् भगवान् के नाम-पहचान के लिये बनी हुई संज्ञा, गोत्र--गुणों के अनुरूपं दिया हुआ नाम, को सुनने से भी महान् फल की प्राप्ति होती है। अर्थात् उनके नाम-गोत्र का सुनना भी बहुत बड़ी बात है। तो फिर उनके सम्मुख जाना, वन्दन-नमन करना, प्रतिपृच्छा-जिज्ञासा करना, अर्थात् उनसे धर्म-तत्त्व के विषय में पूछना, उनकी पर्युपासना करना-उनका सान्निध्य-लाभ लेना-इन सभी से प्राप्त होने वाले फल का तो कहना ही क्या ?
"Oh beloved of the gods! When the mere mention of his auspicious name and lineage is the giver of great merit, the outcome to one who waits upon him, who pays him homage and obeisance, who asks him questions, who worships him, must indeed be very great. . .
एक्कस्स वि आयरियस्स धम्मिअस्स सुवयणस्स सवणताए किमंग पुण विउलस्स अत्थस्स गहणयाए ?
"उनके एक भी आर्य-सद्गुण नष्पन्न , सद्धर्ममय एक उत्तम वचन