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वववाइय सुत्त सू० ३९
यह जो शरीर इष्ट-वल्लभ, कान्त-सुन्दर, प्रिय-प्यारा, मनोज्ञसुन्दर, मनोम-मन में बसा रहने वाला, प्रेय-अतिशय प्रीति के योग्य, प्रेज्य-विशेष पूजनीय, वैश्वासिक-विश्वसनीय, सम्मत-अभिमत, बहुमतबहुत माना हुआ, अनुमत, आभूषणों की पेटी के सदृश प्रीतिकर है, कहीं इसे सर्दी न लग जाए, इसे गर्मी न लग जाए, यह भूखा न रह जाए, कहीं यह प्यासा न रह जाए, कहीं इसे सांप न डस ले, कहीं यह चोरों से पीड़ित न हो जाए, इसे डांस न काटे–कष्ट न पहुंचाए, मच्छर न काटे, वात, पित्त (कफ.), सन्निपात आदि जनित विविध रोगों से आतङ्कित न हो जाए, इसे परीषह-क्षुधा, पिपासा आदि कष्ट, उपसर्ग देव, मानव कृत संकट सहना न पड़े, जिसके लिये प्रत्येक समय ऐसा ध्यान रखा जाता है, उस शरीर का हम अन्तिम उच्छवास-निःश्वास तक युत्सर्जन कर देते हैं अर्थात् हम उससे अपनी ममता हटाते हैं ।
"And this our body which is covetable, delicate, beautiful, worth loving, worthy of confidence, respected by self, respected by many, dear as a casket of ornaments, this our body for which we have been ever-vigilant, lest it should be exposed to cold weather, to hot weather, it should suffer from hunger, from thirst, it should be troubled by the reptiles, it should be robbed by thieves, it should be bitten by the drones and mosquitos, it should be the victim of diseases, or it should be made to bear hardships and troubles inflicted by the gods, this our body we throw out by breathing the final breath."
त्ति कटु संलेहणाझूसणाभूसिया भत्तपाणापडियाइक्खिया पाओवयगा कालं अणवकंखमाणा विहरंति । तए णं ते परिव्वायगा बहूई भत्ताई अणसणाए छर्देति । छेदित्ता आलोइअ पडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववणा । तहिं तेसिं गई. दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। परलोगस्स आराहगा। सेसं तं चेव ॥१३॥ सू० ३९॥ .