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उववाइय सुत्तं सू० ११
39 पुण्णभदं चेइअं समोसरिउं कामे । तं एअ णं देवाणुप्पियाणं पिअट्टयाए प्रिणिवेदेमि । पिअं ते भवउ ।। ११ ।।
वह अपने घर से निकल कर, चम्पानगरी के मध्य में होता हुआ, जहाँ राजा कूणिक का महल था, जहाँ बहिर्वर्ती सभा-भवन था, जहाँ भंभसार का पुत्र कूणिक था, वहाँ आया, ( बहाँ ) आकर उसने हाथ जोड़ते हुए, अंजलि बाँधते हुए आप की जय हो, विजय हो, इन शब्दों में वर्धापितआशीर्वाद दिया। आशीर्वाद देकर इस प्रकार बोला-“हे देवानुप्रिय सौम्यचेता राजन् ! आप जिनके दर्शन चाहते हैं, हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शन प्राप्त होने पर छोड़ना नहीं चाहते हैं, हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शन करने की इच्छा लिये रहते हैं-प्रार्थना करते हैं अर्थात् दर्शन हों वैसे उपायों की सुहृज्जनों से अपेक्षा रखते हैं, हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शन हेतु अभिमुख होने की अभिलाषा-कामना करते हैं, हे देवानुप्रिय! जिनके नाम ( महावीर, सन्मति, ज्ञातपुत्र ) आदि, गोत्र ( काश्यप ) श्रवण मात्र से भी हर्षित और संतुष्ट होते हैं, प्रसन्नता और हर्षातिरेक से मन खिल उठता है, हृदय में आनन्दानुभूति होती है, वे श्रमण भगवान महावीर अनुक्रम से विचरण (विहार ) करते हुए, एक गांव से दूसरे गाँव होते हुए, चम्पा नगरी के उपनगर ( समीपवर्ती ) गाँव में पधारे हैं, अब चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य मे पदार्पण करने वाले हैं। हे देवानुप्रिय ! आपकी प्रसन्नता हेतु यह प्रिय समाचार आपको निवेदित कर रहा हूँ, यह आपके लिये प्रियकर हो" ॥११॥
Having come out of his house, he moved through the city of Campā and came to the palace, to the hall of audience where sat king Kūņiķa, the son of Bhambhasāra. He shouted victory and glory unto the monarch and thereafter submitted as follows:
“Oh beloved of the gods ! The person whom you always desire to see and from whom, when met, you never desire to part, whom you intend to see, whom you are delighted, pleased, ' with your heart expanded in glee, that great person, who is none other than Sramana Bhagavān Mahavira, while wander