________________
६५४ ]
उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ पञ्चदशाध्ययनम्
I
करे । आगे यह गृहस्थ की इच्छा पर निर्भर है कि वह साधु को देवे या न देवे । साधु को तो, देने पर अथवा न देने पर सम भाव में ही रहना उचित है किन्तु किसी पर राग या द्वेष करना साधु का धर्म नहीं है । इसी लिए वह निर्मन्थ कहलाता है क्योंकि उसमें राग-द्वेष की ग्रन्थि नहीं होती, अतएव उसके समीप शत्रु और मित्र दोनों समान हैं । प्रस्तुत गाथा में खादिम और स्वादिम शब्द सचित्त और अचित्त दोनों के लिए प्रयुक्त हुए हैं परन्तु साधु के लिए वही पदार्थ ग्राह्य होगा जो कि अचित्त, प्रासुक अथवा निर्दोष होगा । अतः एला आदि सचित्त पदार्थों को साधु स्वीकार नहीं कर सकता । यहाँ पर "परेसिं" यह पंचमी के अर्थ में षष्ठी का प्रयोग हुआ 1
इस प्रकार भिक्षासम्बन्धी सर्वदोषों का उल्लेख हो जाने पर अब प्रासैषणा दोष के परिहार विषय में कहते हैं—
जं किंचि आहारपाणगं विविहं, खाइमसाइमं परेसिं लडुं । जो तं तिविहेण नाणुकम्पे, मणवयकायसुसंकुडे स भिक्खु ॥१२॥
यत्किञ्चिदाहारपानकं विविधं,
-
खाद्यं स्वाद्यं परेभ्यो लब्ध्वा । यस्तत् त्रिविधेन नानुकम्पेत, संवृतमनोवाक्कायः स पदार्थान्वयः - ज - जो किंचि - किंचिन्मात्र विविहं- नाना प्रकार के खाइम - खादिम साइमं - स्वादिम मिलने पर जो-जो त- उस आहार से तिविहेण - तीनों योगों से अणुकंपे- अनुकम्पा न नहीं करता, वह भिक्षु नहीं किन्तु जे - जिसने मण-मन वय - वचन काय - काया सुसंकुडे- भली प्रकार से संवृत किये हैं, स - वह भिक्खू - भिक्षु होता है ।
भिक्षुः ॥ १२ ॥ आहार - आहार पाणगं - पानी
परेसिं-गृहस्थों से लद्धुं -