Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 630
________________ [५५ ७८३ शब्दार्थ-कोषः ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । worwwwwwwwwwwwwww ६६६, ६७१,६७३, ६७५, ६७६, ६७८ | वाहिओ-छल से ८२८ ६८०,६८१,६८३,६८५,७३४, ७४७ वाहिरिए बाह्य ८५३ ८२१,८४२,८४४,८७२,८७८,८८६ वाहि-व्याधि ६६१, ६०३, १००६, १०८३, १०८४ | वाहिणो व्याधियाँ और १०६३ ११०८, ११०६, १११२, ११२१ वाही-व्याधि ११२२ | वाहेइ-चढ़ जाता है, बैठ जाता है ७१८ वारण-वायु से ६४४ व्व-समुच्चयार्थक है, जैसे, वत्, तरह ६१५ वाघायकरं-व्याघात करने वाला वचन ५८८ | ६३३, ८०२, ८०३, ८५२, ६४४ वाडेहि-बाड़ों से ६६३, ६६४ | | व्वए-व्रत ६०२ वाणारसिं-वाराणसी . ११०० वि-अपि शब्द से क्षेत्रादि तेरे ६२५, ८७२ वाणारसीए-वाराणसी के ११०१ / ८,८६०,६०६, १२६, ९८२ वाणिएम्बणिक , वैश्य १२५, ६२६ | विइगिच्छा-सन्देह . ६६७,६६६, ६७१ वाणिओ-किसी वैश्य ने १२७ ६७३, ६७६,६७८,६८०, ६८१, ६८३ वायं-वाद . वायस्स-वायु से . ८०७ | विइतु-जानकर वायाविद्धोव्वहडो-वायु से प्रेरित किये | विइंया जान लिया ७४४ हुए वनस्पति विशेष की तरह १६० | विउलं-विस्तीर्ण, विपुल ६३४ वारिणा-जल से ११२४ विउला-विपुल ८६१ वारि-पवित्र पानी को १०४२ विउलुत्तमं विस्तीर्ण और उत्तम ६२३, ६१६ वारिमझे-जल के मध्य में १०५३ | विउलो विपुल वाबरे आहार के लिए जाकर उनका | विऊ-विद्वान् , वेत्ता, पण्डित हैं ६३५, १००३ कार्य करे ११३६ वावि-भी १०८५ विकत्ता-विकर्ता है ८६७ वासम्-निवास-अवस्थान को १०००, ११०१ विकहासु-विकथा में १०७६ वासं निवास को १००४ विक्स्नायकित्ती-विख्यात कीर्ति ७५५ वासंते-वर्षा के होते हुए ८० | विगईओ-जो विकृति हैं उनका ७१४ वासाणि-वर्षों तक ८५६ विगप्पणं-विकल्प करना । १०२८ वासिटि-हे वासिष्टि ! ६१४ विगयमोहाणं-मोह रहित के ६३७ वासी-परशु से कोई छेदन करता है ८५७ विगयमोहो-विगतमोह, मोह रहित चासुदेवो वासुदेव ६७२,६७८ होकर इस प्रकार मैं कहता हूँ। वासुदेवं वासुदेव यह महानिर्मन्थीय बीसवाँ 'वासुदेवस्स-वासुदेव का ६६० अध्ययन समाप्त हुआ , ६२४ वासेणोल्ला-वर्षा से भीग गई ८० | विग्यो-विन वाहराहि-बोला ७२६ विचितेई-चिंतन करती है ८१ ७१७ १२०

Loading...

Page Navigation
1 ... 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644