Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 629
________________ उत्तराभ्ययनसूत्रम्- [शब्दार्थ-कोषः ६३१ बजणा=वर्जनीय है। ७६८ | वयजोग-वचनयोग ६३७ वजरिसह-वज्र ऋषभ नाराच ६५६ वयणं-वचन ८७५,६६६, ६६२ वजिए वर्जित-रहित १०७५ वयाणि-व्रत ६३४ वजेजा-त्याग देवे ६६७ वयगुत्ती वचनगुप्ति १०७२, १०६२ वजेयन्वो वर्जन करना ७६८ घयगुत्तो-वचनगुप्त ६६४ बज्म-वध के योग्य वयं वचन पज्झर्ग-वध्य स्थान पर ले जाते हुए वयं-वाणी, हम, वचन को ५८८, ६०६, ६२८ चोर को ६३१, १०६३, १११७, १११८, १११६ वज्झमंडणसोभाग-वध योग्य मंडन है। ११२१ सौभाग्य जिसका १३१ वयंति कहते हैं ५८८,६०३ वन्झमाण अन्य पक्षियों द्वारा पीड़ित वरे श्रेष्ठ-प्रधान, अनंत अनागतकाल में होता हुआ ६३५, ७०० वहन्तो वर्तते हो १०४६ वरिससओवमे सौ वर्ष की उपमा वहमाणो वृद्धि पाने वाला १७३ | वाला ७४५ वडईहिबढ़ई-तरखानों के द्वारा . ८३१ | परिस-वर्ष ७४५ वणिओ-वैश्य जैसे | वल्लराणि-वन वर्ण-वन में १०१० वलरेहिं वनों में SEE ववस्सिया-शुभ अध्यवसाय युक्त १७७ वंतयं वमन किये ६८७ ववहरंते व्यवहार करता हुआ वंतासी-वमन किये हुए को खाने वाला ६२४ ववहरंतस्स-व्यापार करते हुए उसको ६२७ वत्थु घर | ववहरई-व्यवहार करता है ७१७ वत्थुविजं वास्तुविद्या ६४८ वसे वश में ६६३ क्न्दए-वन्दना करता है ७२७ वसानो-चर्बी वंदित्ता-वन्दना करके ८७०, ६७४ | वसंगया-वश में होते हुए ६२८ वन्दणणं-वन्दना की इच्छा रखता है ६४५ | वसहि वस्ति को . ६३३ वन्दमाणा-वन्दना करते हुए १११५ वसुदेव-वसुदेव क्द्धमाणेण वर्द्धमान स्वामी ने १००७ | वसभोवृषभ के समान ७५५ १०१८, १०२६ वसामि-बसता हूँ ७४३ वद्धमाणित्तिवर्द्धमान इस नाम से १००१ वसुहं-वसुधा में ६२४ वमण-वमन वह वध वमित्ता-उनको छोड़कर ६३० वहेइ-व्यथित करता है, मारता है ७२४, ७२५ वमोयन्ति=विमुक्त कर सकी ८८६ वहिएण-व्यथा-पीड़ा से ८३६ वयई-बोलना ११२१ | वा-और, अथवा, समुच्चय अर्थ में है, ६०० . वयसम् वचन ७८, ११०८ / ६०७, ६२५, ६२६, ६२७, ६४६, ६६७ वंतं वमन के " ना ६२६ ७८५ ८३५ ६५२

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