________________
त्रयोविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[१०६६
पदार्थान्वयः-तम्मि-उस वन में केसीगोयमओ-केशी और गौतम का निचं-नित्य-सदा समागमे-समागम में आसि-हुआ सुयसील-श्रुत और शील का समुक्करिसो-सम्यक् उत्कर्ष महत्थत्थ-महार्थ-मुक्ति के अर्थ का साधक शिक्षा व्रतादिरूप अर्थ का विणिच्छओ-विशिष्ट निर्णय ।
__ मूलार्थ—उस वन में केशीकुमार मुनि और गौतम स्वामी का जो नित्यनिरन्तर समागम हुआ, उसमें श्रुत, शील, ज्ञान और चारित्र का सम्यक् उत्कर्ष जिसमें है, ऐसे मुक्ति के साधक शिक्षा व्रत आदि नियमों का विशिष्ट निर्णय हुआ।
टीका-प्रस्तुत गाथा में, केशीकुमार और गौतम स्वामी के पारस्परिक समागम में महाप्रयोजन रूप मोक्ष के अर्थ का विशिष्ट निर्णय किया गया है। मोक्षदशा में अथच जीवन्मुक्त दशा में ज्ञान और चारित्र का पूर्ण अतिशय होता है। मोक्ष के साधन रूप जो शिक्षाव्रतादि नियम हैं, उनके अर्थ का विनिश्चय अर्थात् विशिष्ट निर्णय उस समागम में हुआ। यद्यपि निर्णय-सन्देहरहित निश्चय तो शिष्यों का हुआ तथापि शिष्यसमुदाय का पक्ष लेकर प्रश्न करने से केशीकुमार के नाम का निर्देश किया गया है । गाथा में आये हुए 'नित्य' शब्द का अभिप्राय यह है कि जब तक वे दोनों महापुरुष उस नगरी में रहें, तब तक विशेष रूप से अर्थों का निर्णय होता रहा । विशिष्ट निर्णय का फल है विभिन्नता का अभाव और एकता की स्थापना । सो दोनों के शिष्य-समुदाय में क्रियाभेद अथवा वेषभेद से दृष्टिगोचर होने वाली विभिन्नता जाती रही। ... इस प्रकार दोनों महर्षियों के संवाद से जब धर्मसम्बन्धी निर्णय हो चुका, तब उससे परिषत् अर्थात् पास में बैठे हुए अन्य सभ्यों को जो लाभ पहुँचा, अब उसका वर्णन करते हैंतोसिया परिसा सव्वा, सम्मग्गंसमुवट्ठिया । संथुया ते पसीयन्तु, भयवं केसिगोयमे ॥८९॥
त्ति बेमि। केसिगोयमिजं तेवीसइमं अज्झयणं समत्तं ॥२३॥