Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 567
________________ १९३४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ पञ्चविंशाभ्ययनम् जयघोष मुनि कहते हैं कि पूर्व प्रकरण में अहिंसा और सत्य प्रभृति जितने भी ब्राह्मणत्व के सम्पादकं गुण बतलाये गये हैं, उन गुणों से युक्त जो आत्मा है, वही अपने और पर के उद्धार करने में समर्थ है और इसी लिए वह द्विजोत्तम — द्विजों में श्रेष्ठ है। इसके विपरीत जिस आत्मा में उक्त गुण विद्यमान नहीं हैं, वह वास्तव में वेदवित्, यज्ञार्थी और धर्म का पारगामी भी नहीं है। फिर उसको 'स्व' और 'पर' का उद्धारक कहना या मानना भी केवल साहसमात्र है । जैसे कीचड़ से कीचड़ की शुद्धि नहीं हो सकती, उसी प्रकार हिंसा आदि क्रूर कर्मों के आचरण से आत्मा की शुद्धि भी नहीं हो सकती। इसीलिए सच्चा वेदवित्, सच्चा यज्ञार्थी और धर्म का पारगामी सच्चा ब्राह्मण बनने तथा 'स्व' 'पर' का उद्धारक बनने के लिए पूर्वोक्त गुणों का धारण करना ही नितान्त आवश्यक है । इसके अनन्तर फिर क्या हुआ ? अब इस विषय में कहते हैं एवं तु संस छिन्ने, विजयघोसे य बम्भणे । समुदाय तयओ तं तु, जयघोसं महामुणिं ॥ ३६ ॥ एवं तु संशये छिने, विजयघोषश्च समादाय ततस्तं तु, जयघोषं ब्राह्मणः । महामुनिम् ॥३६॥ पदार्थान्वयः एवं - इस प्रकार संसए-संशय के छिने-छेदन हो जाने पर विजयघोसे - विजयघोष बम्भणे - ब्राह्मण य-फिर समुदाय - सम्यक् निश्चय कर तओतदनन्तर तं - उसको जयघोसं - जयघोष महामुर्गि - महामुनि को पहचान लिया । तुवाक्यालङ्कार में है । मूलार्थ - इस प्रकार संशयों के छेदन हो जाने पर विजयघोष ब्राह्मण ने विचार करके जयघोष मुनि को पहचान लिया कि यह मेरा आता है । टीका —— जयघोष मुनि ने जब अपना वक्तव्य समाप्त किया, तब विजयघोष ब्राह्मण ने उनकी वाणी और आकृति से उनको पहचान लिया अर्थात् यह मेरा भ्राता ही है, इस प्रकार उसको निश्चय हो गया । वास्तव में शरीर की आकृति, वाणी और - सहवास — वार्तालाप आदि से पूर्व विस्तृत पदार्थों की स्मृति हो ही जाया करती है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644