Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 566
________________ पञ्चविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [११३३ टीका-जयघोष मुनि कहते हैं कि यह पूर्वोक्त वर्णन मैंने अपनी बुद्धि से नहीं किया किन्तु यह सब जिनेन्द्र भगवान् का कहा हुआ है, जो कि बुद्ध अर्थात् सर्वज्ञ है । इन पूर्वोक्त धर्मों के आराधन से यह जीव स्नातक हो जाता है, और कर्मों के बन्धन से सर्वथा मुक्त हो जाता है । यहाँ पर स्नातक शब्द से, केवली का ग्रहण करना अभीष्ट है । तात्पर्य यह है कि अहिंसा आदि महाव्रतों के यथाविधि अनुष्ठान से यह आत्मा केवलज्ञान की प्राप्ति करता हुआ सर्व प्रकार के कर्मों का समूल घात कर देता है । उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं इत्यादि । जैनमत में स्नातक नाम केवली का है, वैदिकमत में चारों वेदों के पाठी को स्नातक कहते हैं । और बौद्धमत में बुद्ध को माना गया है । सर्वकर्मविप्रमुक्त का अर्थ, चारों घाती कर्मों का क्षय करने वाला है। इसके अतिरिक्त एकवचन 'अहम्' के स्थान पर जो बहुवचन 'वयम्' का प्रयोग किया है, वह-द्वौ च स्मदोऽविशेषणे' इस सूत्र के आधार से किया गया है। और 'विणिमुक्कं-विनिर्मुक्तम्' यहाँ प्रथमा के स्थान पर द्वितीया है। अब उक्त विषय का उपसंहार करते हुए अन्तिम प्रश्न के विषय में कहते हैंएवं गुणसमाउत्ता, जे भवन्ति दिउत्तमा। ते समत्था समुदत्तुं, परमप्पाणमेव य ॥३५॥ एवं गुणसमायुक्ताः, ये भवन्ति द्विजोत्तमाः । ते समर्थाः समुद्धर्तु, परमात्मानमेव च ॥३५॥ __पदार्थान्वयः-एवं-पूर्वोक्त गुण-गुणों से समाउत्ता-समायुक्त जे-जो दिउत्तमा-द्विजोत्तम भवन्ति-होते हैं ते-वे समत्था-समर्थ हैं समुद्धत्तुं-उद्धार करने को परम्-पर के य-और अप्पाणं-अपने आत्मा का एव-अवधारणार्थक है। मूलार्थ-उक्त प्रकार के गुणों से युक्त जो द्विजेन्द्र हैं, वे ही खात्मा को और पर को संसार-समुद्र से पार करने को समर्थ हैं। टीका-अपने और पर के आत्मा का उद्धार करने. में कौन पुरुष समर्थ हो सकता है, इस अवशिष्ट प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत गाथा में दिया गया है ।

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