Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 574
________________ पञ्चविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [१९४१ की योग्यता नहीं रखते थे। इसलिए परमदयालु जयघोष मुनि ने उनके बोधार्थ इस अति सहज और स्थूल दृष्टान्त को व्यवहार में लाने की चेष्टा की, जिससे कि वे लोग इस सरल दृष्टान्त के द्वारा कर्मबन्ध के विषय को अच्छी तरह से समझ जायँ । जैसेकि स्थानांगसूत्र में लिखा है-'उणा जाणई' अर्थात् बहुत से जीव हेतु के द्वारा बोध को प्राप्त होते हैं। . _ जयघोष मुनि के इस सारगर्भित उपदेश को सुनने के अनन्तर विजयघोष याजक ने क्या किया अर्थात् उसकी आत्मा पर मुनि जी के उक्त उपदेश का क्या प्रभाव पड़ा और उसने फिर क्या किया, अब इस विषय में कहते हैंएवं से विजयघोसे, जयघोसस्स अन्तिए । अणगारस्स निक्खन्तो, धम्मं सोचा अणुत्तरं ॥४४॥ एवं स विजयघोषः, जयघोषस्यान्तिके । अनगारस्य निष्क्रान्तः, धर्मं श्रुत्वाऽनुत्तरम् ॥४४॥ पदार्थान्वयः-एवं-इस प्रकार से-वह विजयघोसे-विजयघोष जयघोसस्स-जयघोष अणगारस्स-अनगार के अन्तिए-समीप अणुत्तरं-प्रधान धर्मधर्म को सोचा-सुनकर निक्खन्तो-दीक्षित हो गया। . · मूलार्थ-इस प्रकार, विजयघोष बामण, जयघोष मुनि के पास सर्वप्रधान धर्म को श्रवण करके दीक्षित हो गया। टीका-प्रस्तुत गाथा में जयघोष मुनि के उपदेश की सफलता का दिग्दर्शन कराया गया है । जयघोष मुनि के तात्त्विक और सारगर्भित उपदेश को सुनकर अर्थात् यज्ञ, अग्निहोत्र और ब्राह्मणत्व आदि विषयों की जयघोष मुनि के द्वारा की गई सत्य और युक्तियुक्त व्याख्या को सुनकर विजयघोष ब्राह्मण ने संसार का परित्याग करके उनके समीप मुनिवृत्ति को अंगीकार कर लिया-मुनिधर्म में दीक्षित हो गया । वास्तव में जो भद्रप्रकृति के मनुष्य होते हैं, वे सन्मार्ग पर बहुत ही शीघ्र आ जाते हैं। अब प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए उक्त दोनों मुनिवरों की दीक्षा के फलविषय में कहते हैं

Loading...

Page Navigation
1 ... 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644