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उत्तराध्ययनसूत्रम्- [पञ्चविंशाध्ययनम् तवस्सियं किसं दन्तं, अवचियमंससोणियं । सुव्वयं पतनिव्वाणं, तं वयं बूम माहणं ॥२२॥ तपखिनं कृशं दान्तम्, अपचितमांसशोणितम् । सुव्रतं प्राप्तनिर्वाणं, तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् ॥२२॥
पदार्थान्वयः–तवस्सियं-तपस्वी किसं-कृश दन्तं-दान्त–इन्द्रियों को दमन करने वाला अवचिय-अपचित-कम हो गया है मंस-मांस और सोणियंरुधिर जिसका सुव्वयं-सुन्दर व्रतों वाला पत्त-प्राप्त किया है निव्वाणं-निर्वाण को जिसने तं-उसको—इत्यादि सब पूर्ववत् जानना ।
1. मूलार्थ-जो तपस्वी, कश और दान्त-इन्द्रियों का दमन करने वाला है, जिसके शरीर में मांस और रुधिर कम हो गया है तथा व्रतशील और निर्वाण-परम शान्ति–को जिसने प्राप्त किया है, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं।
____टीका-प्रस्तुत गाथा में संयमशील परम तपस्वी साधु को ही ब्राह्मण रूप से वर्णन किया है । जयघोष मुनि फिर कहते हैं कि जो तपस्वी अर्थात् तप करने वाला और तप के प्रभाव से जिसका शरीर कृश हो गया हो तथा शरीर का मांस
और रुधिर भी सूख गया हो एवं जिसने परम शान्ति रूप निर्वाण को प्राप्त किया हो ऐसे दान्त-परम संयमी पुरुष को हम ब्राह्मण कहते हैं । इस गाथा में ब्राह्मणत्व के सम्पादक तप का अनुष्ठान, इन्द्रियों का दमन, ब्रतों का पालन और पूर्णसमता, इन चार गुणों का उल्लेख किया गया है । बृहद्वृत्तिकार ने इस गाथा को प्रक्षिप्त कहा है परन्तु दीपिका आदि में इसको प्रक्षिप्त नहीं कहा।
फिर कहते हैंतसपाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थावरे । जो न हिंसइ तिविहेण, तं वयं बूम माहणं ॥२३॥ त्रसप्राणिनो विज्ञाय, संग्रहेण च स्थावरान् । यो न हिनस्ति त्रिविधेन, तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् ॥२३॥