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पञ्चविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम्।
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प्रकार का अर्थगत सम्बन्ध है । एवं वेदमन्त्रों के जो अर्थ किये हैं, उनमें भी किसी प्रामाणिक अथवा युक्तियुक्त सरणि का अनुसरण नहीं किया। इसमें सन्देह नहीं कि स्वामी दयानन्द जी ने वेदों को हिंसा के कलङ्क से मुक्त कराने का अपने भाष्य में बड़ा प्रयत्न किया है । मन्त्रों के पदों को इधर उधर तोड़-मरोड़कर उनका मनमाना अर्थ और भाव निकालने में बड़े साहस से काम लिया है। परन्तु इस कथन में भी स्वल्प भी अतिशयोक्ति नहीं कि वे इस काम में बुरी तरह असफल हुए हैं। सारांश यह है कि वर्तमान काल में ऋग, यजु आदि के नाम से प्रसिद्ध वेद और सायण, महीधर, उव्वट आदि आचार्यों के संस्कृतभाष्य तथा पण्डित ज्वालाप्रसाद आदि अन्य आधुनिक विद्वानों के भाषाभाष्यों को देखने से एक तटस्थ विद्वान् के हृदय में जो भाव अङ्कित हो सकते हैं, उन्हीं को प्रस्तुत गाथा में संक्षेप से व्यक्त किया गया है।
- अब प्रकारान्तर से उक्त विषय का वर्णन करते हैं । यथान वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बम्भणो। न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥३१॥ नाऽपि मुण्डितेन श्रमणः, न ओङ्कारेण ब्राह्मणः । न मुनिररण्यवासेन, कुशचीरेण न तापसः ॥३१॥ - पदार्थान्वयः-नवि-न तो मुण्डिएण-मुण्डित होने से समणो-श्रमण होता है न-न ओंकारेण-ओंकार पढ़ने मात्र से बम्भणो-ब्राह्मण होता है रएणवासेणंअरण्य में निवास करने से न मुणी-मुनि नहीं होता न-नहीं कुसचीरेण-कुश वस्त्रों से-कुशा आदि तृणों के पहनने मात्र से तावसो-तपस्वी होता है। - मूलार्थ केवल शिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं बन सकता, केवल ओंकार मात्र कहने से ब्राह्मण नहीं हो सकता, और जंगल में रहने मात्र से कोई मुनि तथा कुशा आदि के वस्त्र धारण कर लेने से कोई तापस-तपस्वी नहीं हो सकता।
टीका-प्रस्तुत गाथा में बाह्यं लिंग की अवगणना की गई है अर्थात् जो लोग केवल बाह्य लिंग को ही कार्य का साधक समझते हैं, उनके विचारों की आलोचना