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: उत्तराध्ययनसूत्रम्-
1 पञ्चविंशाध्ययनम्
व्यक्ति को ही ब्राह्मण कहना चाहिए। तथाहि—अलोलुप-लोलुपता से रहित अर्थात् रसों में अमूर्च्छित-मूर्छा न रखने वाला । मुधाजीवी-अज्ञात–अपरिचित कुलों से निर्दोष भिक्षा के लेने वाला अर्थात् भिक्षावृत्ति से जीवन यात्रा चलाने वाला । अनगार-गृह, मठादि से रहित । अकिंचन-द्रव्यादि का परित्यागी
और गृहस्थों में असंसक्त अर्थात् उनसे अधिक परिचय न रखने वाला । कारण कि गृहस्थों के अधिक परिचय में आने से आत्मा में किसी न किसी प्रकार के हानिकारक दोष के आ जाने की सम्भावना रहती है । तब इस सारे कथन का सारांश यह हुआ कि जो व्यक्ति रसों का त्यागी, निर्दोष . भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करने वाला, द्रव्य और गृह मठादि से रहित एवं गृहस्थों के अनावश्यक संसर्ग में नहीं आता, वही सच्चा ब्राह्मण है। - अब पूर्वोक्त विषय में फिर कहते हैंजहित्ता. पुव्वसंजोगं, नाइसंगे य बन्धवे ।
जो न सजइ भोगेसु, तं वयं बूम माहणं ॥२९॥ हित्वा पूर्वसंयोग, ज्ञातिसंगाँश्च बान्धवान् ।
यो न सजति भोगेषु, तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् ॥२९॥ ... पदार्थान्वयः-जहिता-छोड़कर पुव्व-पूर्व संजोगं-संयोग य-और नाइसंगे-ज्ञातियों का सङ्ग बन्धवे-बन्धुजनों का सङ्ग जो-जो न सञ्जइ-नहीं आसक्त होता भोगेसु-भोगों में तं वयं बूम माहणं-उसको हम ब्राह्मण कहते हैं।
मूलार्थ-जो पूर्वसंयोग तथा ज्ञाति और बन्धुजनों के सम्बन्ध को छोड़ने के अनन्तर फिर कामभोगों में खचित-आसक्त नहीं होता, उसको हम ब्रामण कहते हैं।
टीका-प्रस्तुत गाथा में व्याजरूप से त्यागवृत्ति को दृढतर रखने का उपदेश किया गया है । जयघोष मुनि कहते हैं कि, जिसने माता पिता के सम्बन्ध को त्याग दिया है, श्वसुर आदि के संग को भी छोड़ दिया है, ज्ञाति तथा सम्बन्धी जनों के मोह से अलग हो गया है तथा त्यागे हुए कामभोगों में जो फिर आसक्त