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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[पञ्चविंशाध्ययनम्
मुख्यता-प्रधानता है, उससे तू अनभिज्ञ है । यज्ञों में जिसकी प्रधानता है, उससे भी तू अपरिचित है अर्थात् सब से बढ़कर जो यज्ञ है, उसका तुम्हें ज्ञान नहीं है । इसी प्रकार नक्षत्रों में जिसकी प्रधानता है, उसको भी तुम नहीं जानते । धर्मों में जिसकी मुख्यता है, उसका भी तुम्हें परिचय नहीं है । इसके अतिरिक्त स्व और पर आत्मा के उद्धार करने की जिनमें शक्ति है, ऐसे महापुरुषों का भी तुम्हें पता नहीं । यदि है तो बतलाओ । तात्पर्य यह है कि इन पूर्वोक्त विषयों से तू सर्वथा अपरिचित प्रतीत होता है अर्थात् इनका तुम्हें यथार्थ ज्ञान हो, ऐसा मुझे तो प्रतीत होता नहीं । यदि तुम जानने का अभिमान रखते हो तो कहो, इनकी समुचित व्याख्या करके बतलाओ। इस सारे कथन में जयघोष मुनि ने विजयघोष की सारी बातों की समालोचना उसी क्रम से आरम्भ की है, जिस क्रम से विजयघोष ने कथन किया है। वास्तव में दोनों का यह वार्तालाप यज्ञमण्डप में उपस्थित हुए अन्य ब्राह्मण विद्वानों के बोधार्थ ही उपस्थित किया गया समझना चाहिए। [ युग्मव्याख्या ]
जयघोष मुनि के उक्त सम्भाषण को सुनने के अनन्तर विजयघोष ने जो कुछ किया, अब उसका वर्णन करते हैंतस्सक्खेवपमोक्खं च, अचयन्तो तहिं दिओ। सपरिसो पंजली होउं, पुच्छई तं महामुणिं ॥१३॥ तस्याक्षेपप्रमोक्षं च, (दातुम्) अशक्नुवन् तत्र द्विजः । सपरिषत् प्राञ्जलिर्भूता, पृच्छति तं . महामुनिम् ॥१३॥
पदार्थान्वयः-तस्स-उस मुनि के खेवपमोक्खं-आक्षेपों के उत्तर देने में अचयन्तो-असमर्थ होकर तहिं-उस यज्ञ में दिओ-द्विज-ब्राह्मण सपरिसो-परिषत् के सहित पंजली होउं-हाथ जोड़कर तं-उस महामुणि-महामुनि को पुच्छई-पूछता है।
. मूलार्थ—उस मुनि के आक्षेपों के उत्तर देने में असमर्थ हुमा वह द्विज विजयघोष प्रापब-अपनी परिषद् के साथ हाथ जोड़कर उस महामुनि . (जयघोष ) से पूछने लगा।