Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 532
________________ पञ्चविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ १०६६ 1 I भक्ष्य बन रहा है । सत्य है ! जो इस संसार में बलवान् है, वह निर्बल का घातक बन रहा है । इसी प्रकार काल सब से बलवान् है । वह सर्व जीवों को परलोक में पहुँचा देता है । अतः वास्तव में देखा जाय तो इस विश्व में धर्म ही एक ऐसा पदार्थ है कि जो सर्व जीवों का रक्षक और कुशलदाता है एवं संसार के अनेकविध कष्टों से बचाकर मोक्ष-मंदिर में पहुँचा देता है । अतः मुझे भी इस धर्म की ही शरण में जाकर सर्व दुःखों से निवृत्ति प्राप्त करनी चाहिए । मन में इस प्रकार के भाव उत्पन्न होने के अनन्तर जयघोष वहाँ से उठा और एक परम पवित्र श्रमण के पास जाकर जैनधर्म में दीक्षित हो गया अर्थात् उसने सर्वविरति मार्ग को अंगीकार कर लिया । तदनन्तर वे जयघोष मुनि साधुवृत्ति का सम्यक् पालन करते हुए अर्थात् तप, स्वाध्याय और संयम आदि के सम्यक् अनुष्ठान से आत्मा की शुद्धि करते हुए धर्मोपदेश के निमित्त प्रामानुग्राम विचरने लगे । इसके आगे का चरित सूत्रकार स्वयं वर्णन करते हैं। यथा माहणकुलसंभूओ, आसि विप्पो महायसो । जायाई जमजन्नम्मि, जयघोसि त्ति नामओ ॥१॥ ब्राह्मणकुलसंभूतः आसीद् विप्रो महायशाः । यमयज्ञे, जयघोष इति नामतः ॥१॥ यायाजी पदार्थान्वयः—माहणकुल–ब्राह्मणकुल में संभूओ - - उत्पन्न हुआ आसि था विप्पो - विप्र महायसो - महान् यश वाला जायाई - आवश्यक रूप यज्ञ करने वाला जमजन्नम्मि- यमरूप यज्ञ में— अनुरक्त जयघोसि – जयघोष ति- इस नाम-नाम से प्रसिद्ध | " मूलार्थ -- ब्राह्मणकुल में उत्पन्न होने वाला जयघोष नाम से प्रसिद्ध एक महान् यशस्वी विप्र हुआ, जो कि यमरूप – यज्ञ में अनुरक्त अतएव भावरूप से यजन करने के स्वभाव वाला था । टीका - इस गाथा में जयघोष का संक्षिप्त परिचय दिया गया है । यथा— वह ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुआ था और भावयज्ञ के अनुष्ठान में रत था अर्थात्

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