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प्रयोविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[१०३३ मूलार्थ हे गौतम ! वे शत्रु कौन कहे गये हैं ? केशीकुमार के इस कथन के अनन्तर उनके प्रति गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे। ... टीका-केशीकुमार ने गौतम स्वामी से पूर्वोक्त प्रश्न के उत्तर को स्पष्ट कराने के लिए पुनः यह प्रश्न किया कि वे पाँच और दश शत्रु कौन से हैं और उन पर आपने किस प्रकार से विजय प्राप्त की ? यद्यपि केशी मुनि को इन बातों का स्वयं ज्ञान था परन्तु जनता के बोध के लिए उन्होंने ऐसा किया।
अब गौतम स्वामी उक्त प्रश्न का उत्तर देते हैं । यथाएगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्दियाणि य । ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी ॥३८॥ एक आत्माऽजितः शत्रुः, कषाया इन्द्रियाणि च । तान् जित्वा यथान्यायं, विहराम्यहं मुने ! ॥३८॥
पदार्थान्वयः-एगप्पा-एक आत्मा अजिए-न जीता हुआ सत्तू-शत्रु है कसाया-कषाय य-और इन्दियाणि-इन्द्रियें भी शत्रु हैं ते–उनको जिणित्तु-जीत कर जहानायं-न्यायपूर्वक महामुणी-हे महामुने ! विहरामि-मैं विचरता हूँ।
मूलार्थ हे महामुने ! वशीभूत न किया हुआ एक आत्मा शत्रुरूप है एवं कषाय और. इन्द्रियें भी शत्रुरूप हैं उनको न्यायपूर्वक जीतकर मैं विचरता है।
... 'टीका-केशीकुमार श्रमण के किए हुए प्रश्न के उत्तर को फिर से स्पष्ट करते हुए गौतम स्वामी कहते हैं कि हे महामुने ! एक अपना आत्मा वशीभूत न किया हुआ शत्रुरूप है क्योंकि सर्व प्रकार के अनर्थ इसी से उत्पन्न होते हैं, इसलिए अवशीभूत आत्मा अर्थात् मन, सबसे बड़ा शत्रु है । जब आत्मा वशीभूत नहीं हुआ तब क्रोध, मान, माया और लोभ यह चार शत्रु और भी युद्ध के लिए उपस्थित हो गये, जब ये पूर्वोक्त पाँच शत्रु बन गए तब पाँचों इन्द्रियें भी शत्रुरूप बन गई। इस प्रकार जब दश शत्रु उत्पन्न हो गये तब, नोकषाय आदि उत्तरोत्तर सहस्रों शत्रु खड़े हो गये । इस प्रकार इन बढ़े हुए शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिये सब से प्रथम न्यायपूर्वक न्याय की शैली से अपने आत्मा अर्थात् मन को अपने