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प्रयोविंशध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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देने वाली कही गई है । सो इस लता को मैंने न्यायपूर्वक अर्थात् जिनप्रवचन के अनुसार अपने हृदय-स्थान से उखाड़ दिया है अर्थात् इसका समूलोन्मूलन कर दिया है। इसी लिए मैं इस संसार में आनन्दपूर्वक विचरण करता हूँ । यहाँ प्रस्तुत गाथा के द्वारा यह समझाया गया है कि इस संसार में समस्त प्रकार के दुःखों का मूल 'तृष्णा' है। इसी लिए इसको विषलता-विष की बेल कहते हैं, क्योंकि इससे विष के समान नाना प्रकार के दुःखरूप फल उत्पन्न होते हैं । अतः जिन आत्माओं ने इस तृष्णा का सर्वथा विनाश कर दिया है, वे ही आत्मा वास्तव में सुखी हैं। इसलिए मुमुक्षु पुरुषों को चाहिए कि वे जहाँ तक हो सके, वहाँ तक तृष्णा का क्षय करने का प्रयत्न करें।
गौतम स्वामी के इस उत्तर को सुनकर केशीकुमार मुनि बोले किसाहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो।
अनोवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोयमा ! ॥४९॥ साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम, तं मां कथय गौतम ! ॥४९॥
- इस गाथा का भावार्थ पहले की ही तरह जान लेना । इस प्रकार पंचम द्वार के अनन्तर प्रश्न के छठे द्वार का प्रस्ताव करते हुए केशीकुमार मुनि, अब अनि को शान्त करने के सम्बन्ध में प्रश्न करते हैं। यथासंपञ्जलिया घोरा, अग्गी चिट्ठइ गोयमा ! - जे डहन्ति सरीरत्था, कहं विज्झाविया तुमे ॥५०॥ संप्रज्वलिता घोराः, अनयस्तिष्ठन्ति गौतम ! ये दहन्ति शरीरस्थाः, कथं विध्यापितास्त्वया ॥५॥ ___पदार्थान्वयः-संपञ्जलिया-संप्रज्वलित घोरा-रौद्र गोयमा-हे गौतम ! अग्गी-अग्नि चिट्ठइ-ठहरती है जे-जो डहन्ति-भस्म करती है सरीरत्था-शरीर में बही हुई कहं-किस प्रकार तुमे-तुमने विज्झाविया-बुझाई ?