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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[अष्टादशाध्ययनम्
मूलार्थ हे मुने ! धीर पुरुष क्रिया में रुचि करे और अक्रिया का परित्याग कर देवे । तथा सम्यग् दृष्टि से दृष्टि सम्पन्न होकर. धर्म का आचरण करे जो कि अति दुष्कर है । अथवा तू धर्म का आचरण कर। . टीका-क्षत्रिय ऋषि कहते हैं कि हे मुने ! जो धीर पुरुष होते हैं उनकी रुचि क्रियावाद अर्थात् आस्तिकता में ही होती है, किन्तु अक्रिया-नास्तिकता की
ओर उनका ध्यान बिलकुल नहीं होता । अतः सम्यग् दृष्टि से दृष्टि-सम्पन्न होकर बुद्धिमान् पुरुष को सदा धर्म का ही आचरण करना चाहिए । यहां पर इस विचार को अवश्य ध्यान में रखना कि सम्यग्दर्शनसम्पन्न पुरुष ही धर्म के अनुष्ठान में प्रवृत्त हो सकता है, और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए सब से प्रथम अन्तरात्मा में आस्तिकता के भाव पैदा करने की नितान्त आवश्यकता है। इसी दृष्टि को लेकर क्षत्रिय ऋषि संजय मुनि से कहते हैं कि तुम सम्यग् दृष्टि से दृष्टि-सम्पन्न-ज्ञान-सम्पन्न होकर केवल धर्म का ही आचरण करो क्योंकि धर्म का आचरण अति दुष्कर है।
___ अब प्रस्तुत विषय में कतिपय महापुरुषों के उदाहरण देते हैंएयं पुण्णपयं सुच्चा, अत्थधम्मोवसोहियं । भरहोवि भारहं वासं, चिच्चा कामाई पव्वए ॥३४॥ एतत् पुण्यपदं श्रुत्वा, अर्थधर्मोपशोभितम् । भरतोऽपि भारतं वर्ष, त्यक्त्वा कामान्प्राबाजीत् ॥३४॥
पदार्थान्वयः-एयं-यह पुरणपयं-पुण्यपद सुच्चा-सुनकर अत्थ-अर्थ धम्म-धर्म से जो उवसोहियं-उपशोभित भरहो वि-भरत भी भारहं वासं-भारतवर्ष को चिच्चा-छोड़कर तथा कामाई-कामभोगों को छोड़कर पवए-दीक्षित हो गया ।
___ मूलार्थ-इस अनन्तरोक्त पुण्यपद को सुनकर-जो कि अर्थ और धर्म से उपशोभित है-महाराजा भरत भी भारतवर्ष और कामभोगों को छोड़कर दीक्षित हो गए। . टीका-मुमुक्षु पुरुषों को धर्म में दृढ़ बनाने के लिए, क्षत्रिय ऋषि. संजय मुनि से कहते हैं कि इस अवसर्पिणी काल में होने वाले प्रथम चक्रवर्ती भरत