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एकोनविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
समया सव्वभूएसु, सत्तुमित्तेसु वा जगे । पाणाइवायविरई जावज्जीवा
समता
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सर्वभूतेषु शत्रुमित्रेषु वा जगति ।
प्राणातिपातविरतिः यावज्जीवं
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दुक्करं ॥२६॥
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दुष्करा ॥२६॥ पदार्थान्वयः:- समया - समतां सव्वभूएसु - सर्वभूतों में सत्तु - शत्रु और मित्तेसु - मित्रों में जगे - लोक में पारणा इवायविरई - प्राणातिपात की निवृत्ति जावजीवाए - जीवनपर्यन्त दुक्करं - दुष्कर है ।
मूलार्थ - हे पुत्र ! संसार के सभी प्राणियों - अर्थात् शत्रु मित्र आदि सभी जीवों में समभाव रखना और जीवनपर्यन्त प्राणातिपात से निवृत्त होना, यह दुष्कर है — अत्यन्त कठिन है ।
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टीका - संयमवृत्ति का पालन करना क्यों दुष्कर है ? इस कथन के समर्थन मृगापुत्र के माता पिता ने मुनिवृत्ति के मूलस्तम्भ रूप पाँच महाव्रतों का उसके समक्ष वर्णन करके अपने कथन को प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है । इन पाँच महाव्रतों में से पहले महाव्रत का स्वरूप बतलाते हुए वे कहते हैं कि हे पुत्र ! संसार के सर्व प्राणियों पर ― चाहे उनमें अपना कोई शत्रु होवे अथवा मित्र - सदा के लिए समभाव रखना बहुत कठिन है तथा मन, वचन और शरीर से जीवनपर्यन्त किसी भी प्राणी की हिंसा न करना अर्थात् हिंसा के लिए प्रवृत्त न होना और भी दुष्कर है। कारण कि जो कोई प्राणी अपना अपकार करे, उस पर क्रोध का हो जाना कुछ अस्वाभाविक नहीं; एवं उपकार करने वाले पर राग का होना भी 'कुछ आश्चर्य की बात नहीं है । इसलिए सामान्य कोटि के जीवों का इस संसार में शत्रु और मित्र पर समान भाव रहना अत्यन्त कठिन है । तथा मन, वचन और काया से किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुँचाना, यह भी कोई साधारण सी बात नहीं । इसलिए हे पुत्र ! संयम वृत्ति का आराधन करना बहुत दुष्कर है ।
इस प्रकार प्रथम महाव्रत के पालन को दुष्कर बतलाने के अनन्तर अब द्वितीय महाव्रत की दुष्करता का वर्णन करते हैं