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हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
एकोनविंशाध्ययनम् ]
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क्षुधा तृषा च शीतोष्णं, दंशमशकवेदना
आक्रोशा दुःखशय्या च तृणस्पर्शा जलमेव च ॥३२॥ ताडना तर्जना Marat परीषहौ ।
चैत्र,
दुःखं
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भिक्षाचर्यायाः, याचना
चालाभता ॥३३॥
पदार्थान्वयः—छुहा—क्षुधा य - और तव्हा - तृषा दंसमसग - दंश, मशक की वेणा - वेदना य - समुच्चय अर्थ में है अक्कोसा - आक्रोश — गाली आदि य-और दुक्ख सिजा - दुःखरूपशय्या तणफासा- तृणस्पर्श य - पुनः जल्लम् - शरीर का मल एव - निश्चयार्थक है |
तालणा-ताड़ना तज्जणा - तर्जना च- पुनः एव - निश्चय वह-वध बन्धबन्धन आदि परीसहा - परीषह दुक्ख - दुःखरूप भिक्खायरिया - भिक्षांचरी का करना जाणा - माँगना - और अलाभया - माँगने पर न मिलना ।
मूलार्थ - भूख, प्यास, दंशमशक की वेदना, आक्रोश, विषमशय्या, तृणस्पर्श और शरीर का मल तथा ताड़ना, तर्जना, वध, बन्धन और घर २ में भिक्षा माँगना तथा माँगने पर न मिलना इत्यादि परिषहों का सहन करना बहुत कठिन है ।
पुत्र
टीका – इन दोनों गाथाओं में परिषहों के सहन करने की दुष्करता का वर्णन किया गया है । मृगापुत्र के प्रति उसके माता पिता कहते हैं कि हे ! साधुवृत्ति का पालन करना इसलिए भी कठिन है कि इसमें अनेक प्रकार के परिषहों— कष्टों का सामना करना पड़ता है । और इन परिषहरूप शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना कोई सहज काम नहीं है । यथा— क्षुधा के लगने पर चाहे प्राण भले ही चले जायँ परन्तु साधुवृत्ति के विरुद्ध सचित्त और आधाकर्मी आहार कदापि ग्रहण नहीं करना । इसी प्रकार तृषा के व्याप्त होने पर प्राण जाने तक भी सचित्त जल का अंगीकार न करना, शीत के लगने पर भी प्रमाण से अधिक वस्त्र और अग्नि आदि का सेवन न करना, गर्मी की अधिक बाधा होने पर भी स्नान आदि न करना, डाँस और मच्छर आदि की वेदना को शांतिपूर्वक सहन करना, अन्य पुरुषों के भर्त्सनायुक्त वाक्यों को सुनकर उन पर किसी प्रकार का क्रोध न करना किन्तु उनके आक्रोशयुक्त