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उत्तराध्ययनसूत्रम् -
[ विंशतितमाध्ययनम्
राजा रायसीहो - राजाओं में सिंह के समान अणगारसीहं - अनगारों— साधुओं में सिंह के समान – मुनि को परमाइ - परम भत्तिए - भक्ति से सओरोहो - अन्तःपुर के साथ सपरियणो-परिजनों के साथ और सबन्धवो - बन्धुओं के साथ धम्मापुरत्तोधर्म में अनुरक्त हो गया विमलेण - निर्मल चेयसा - चित्त से ।
मूलार्थ इस प्रकार राजाओं में सिंह के समान श्रेणिक राजा, अनगार सिंह - मुनियों में सिंह के समान – मुनि की स्तुति करके परम भक्ति से अपने अन्तःपुर के साथ, परिजनों और भाइयों के साथ, निर्मलचित्त से धर्म में अनुरक्त हो गया ।
टीका - प्रस्तुत गाथा में महाराजा श्रेणिक की धर्मबोध की प्राप्ति का वर्णन किया गया है । पराक्रम और शूरवीरता की दृष्टि से राजाओं में सिंह के समान होने से महाराजा श्रेणिक को राजसिंह कहा गया और तप, संयम आदि उत्कृष्ट क्रिया के आचरण से तथा कर्मरूप मृगों का संहार करने से उक्त मुनि को अनगार सिंह माना गया है । महाराजा श्रेणिक उक्त मुनि की पूर्ण भक्ति से स्तुति करके, उनके उपदेश से निर्मलचित्त होता हुआ अपने अन्तःपुर, सम्बन्धी और भृत्य जनों के साथ धर्म में अनुरक्त हो गया । क्योंकि उस समय उस क्रीड़ा उद्यान में महाराजा श्रेणिक अपने सारे ही परिवार के साथ आया हुआ था । अतः सब ने साथ ही धर्म का ग्रहण किया । जो उपदेश सत्य एवं यथार्थ होता है, तथा जो धारणाशील पुरुषों के मुख से निकला हुआ होता है, उसका प्रभाव श्रोताओं पर अवश्य पड़ता है तथा वह उपदेश आत्मकल्याण के लिए सब से अधिक उपयोगी होता है । सपरिवार कहने का तात्पर्य यह है कि जिस घर अथवा कुटुम्ब में एक ही धर्म रखने वाले होते हैं, वहाँ पर शांति और लक्ष्मी सदा ही निवास करती है। कलह का उस स्थान में नाम तक भी श्रवण करने में नहीं आता ।
अब फिर कहते हैं
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ऊस सियरोमकूवो काऊण य पयाहिणं । अभिवन्दिऊण सिरसा, अइयाओ नराहिवो ॥ ५९ ॥