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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[एकविंशाध्ययनम्
इति ब्रवीमि । इति समुद्रपालीयमेकविंशतितममध्ययनं समाप्तम् ॥२१॥
पदार्थान्वयः-दुविहं-दोनों प्रकार के खवेऊण-क्षय करके पुनपावं-पुण्य और पाप को निरंजणे-कर्मसंग से रहित सम्बओ-सर्व प्रकार से विप्पमुक्के-विप्रमुक्त होकर समुद्देव-समुद्र की तरह महाभवोहं-महाभवों के समूह को तरित्ता-तैरकर समुद्दपाले-समुद्रपाल मुनि अपुणार्गम-अपुनरागमन को गए-प्राप्त हो गया।
मूलार्थ-दोनों प्रकार के-पाती और अघाती-कर्मों तथा पुण्य और पाप को चय करके कर्ममल से रहित हुआ समुद्रपालमुनि सर्व प्रकार के बन्धनों से सर्वथा मुक्त होकर महामव समूह रूप समुद्र से पार होता हुआ अपुनरावृत्तिपद-मोक्षपद को प्राप्त हो गया।
टीका-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय—इन चार कर्मों की घाती संज्ञा है तथा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र-इन चारों को अघाती कर्म कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जो कर्म आत्मा के ज्ञानादि गुणों का घात करने वाले हैं, वे घाती कहलाते हैं और जिनसे आत्मा के उक्त गुणों का घात नहीं होता, उनकी अघाती संज्ञा है । सो इन दोनों प्रकार के कर्मों को क्षय करके तथा पुण्य और पाप का भी क्षय करके, इतना ही नहीं किन्तु सर्व प्रकार के बन्धनों से सर्वथा मुक्त होकर अतिदुस्तर संसार-समुद्र को तैरकर वह समुद्रपाल मुनि जहाँ से पुनरागमन नहीं होता, ऐसे मुक्तिधाम को प्राप्त हो गये । यहाँ पर इतना ध्यान रहे कि मोक्ष कर्मों का फल नहीं किन्तु कर्मों के आत्यन्तिक क्षय का नाम मोक्ष है । अत: जब संसार के हेतुभूत कर्मरूप बीज का विनाश हो गया, तब फिर उसका पुनरागमन न होना स्वतः ही सिद्ध हो जाता है। पूर्वाचार्यों ने इसी आशय को स्फुट करते हुए कहा है'दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न प्ररोहति भवांकुरः॥' तात्पर्य यह है कि जैसे बीज के दग्ध होने पर उससे अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार कर्मों के नाश होने से फिर जन्म नहीं होता। वास्तव में जीव के विशुद्ध पर्याय का नाम ही मोक्ष है। जैसे—दुग्ध से दधि, दधि से नवनीत और नवनीत से घृत । इस प्रकार जब दुग्ध घृत के पर्याय को प्राप्त हो गया, तब फिर यह संभावना