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एकविंशाध्ययनम् ]
हिन्दी भाषाटीकासहितम् ।
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भय नहीं होता, उसी प्रकार समुद्रपाल भी निर्भय होकर निरन्तर विषयभोगजन्य सुख का उपभोग करने लगा । स्वर्गस्थान में जितने भी देव हैं, वे सब इन्द्र के आधीन होने से निर्विघ्नतया स्वर्गीय सुखों का उपभोग नहीं कर सकते परन्तु दोगुन्दक जाति के देवों पर किसी का अंकुश न होने से उनके सुखोपभोग में किसी प्रकार की बाधा नहीं आ सकती । कारण कि इन्द्र के गुरुस्थानीय होने से उन पर उसका भी कोई शासन नहीं चलता । अतएव उनके सुख का उदाहरण दिया गया है । समुद्रपाल की भार्या का वास्तविक नाम तो 'रुक्मिणी' परन्तु प्राकृत के कारण
'रूपिणी' कहा गया है ।
समुद्रपाल के विवाह के अनन्तर और विवाहजन्य सुखोपभोग के समय क्या हुआ ? अब इसका वर्णन करते हैं—
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अह अन्नया कयाई, पासायालोयणे ठिओ । वज्झमंडण सोभागं वज्झं पास वज्झगं ॥८॥ अथान्यदा कदाचित् प्रासादालोकने स्थितः । वध्यमण्डनशोभाकं वध्यं पश्यति वध्यगम् ॥८॥
पदार्थान्वयः—— अह – अथ अन्नया - अन्यथा कयाई - कदाचित् पासायालोयणे - प्रासाद के गवाक्ष में ठिओ-स्थित हुआ— बैठा हुआ वज्झमंडणसोभागंयोग्य मंडन है सौभाग्य जिसका वज्यं - वध के योग्य वज्भगं - वध्यस्थान पर ले जाते हुए चोर को पास - देखता है ।
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मूलार्थ - किसी समय प्रासाद के गवाक्ष में बैठा हुआ समुद्रपाल वध योग्य चिह्न से विभूषित किये हुए वध्य - चोर को वध्यभूमि में ले जाते हुए देखता है । टीका - अपनी रुचि के अनुसार स्वर्गतुल्य सुखों का अनुभव करते हुए समुद्रपाल ने किसी समय प्रासाद के गवाक्ष में बैठकर नगर की ओर देखा तो मार्ग में राजपुरुषों के द्वारा वध्यस्थान में वध के लिए ले जाते हुए एक अपराधी पुरुष पर उसकी दृष्टि पड़ी । उसके गले में वध्यपुरुषोचित आभूषण पड़े हुए थे । पहले यह प्रथा थी कि जिस पुरुष को फाँसी आदि के कठोर दंड की आज्ञा होती थी,
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