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उत्तराध्ययनसूत्रम् -
[ विंशतितमाध्ययनम्
मूलार्थ - इस प्रकार कहा हुआ वह राजा साधु के वचन को सुनकर अतिव्याकुल और विस्मय को प्राप्त हुआ । कारण कि साधु के उक्त वचन अश्रुतपूर्व थे अर्थात् उसने प्रथम कभी नहीं सुने थे ।
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टीका- — उक्त मुनिराज का उत्तर सुनकर महाराजा श्रेणिक को बहुत आश्चर्य हुआ । वह एकदम व्याकुल हो उठा और उक्त मुनिराज के विषय में उसके मन में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प उठने लगे। क्योंकि उसने आज तक किसी के मुख से यह नहीं सुना था कि हे राजन् ! तू अनाथ है । इसलिए मुनिराज के इन वाक्यों ने उसे आश्चर्य डाल दिया । राजा के परम विस्मित अथवा आश्चर्यान्वित होने का कारण यह था कि मुनिराज के मुख से जो वचन निकले, उनसे राजा के मन में दो संकल्प उत्पन्न हुए। प्रथम — या तो ये मुनिराज मुझे जानते नहीं, इसलिए मेरे को इन्होंने अनाथ कहा । दूसरे — या इन्होंने मेरी भावी दशा का अवलोकन करके मुझे अनाथ कहा है । सम्भव है, इन्होंने अपने ज्ञान में मेरा राज्य से च्युत होना अथवा और किसी भयंकर आपत्ति में ग्रस्त होना देख लिया हो, इत्यादि ।
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अस्तु, अब महाराजा श्रेणिक अपना परिचय कराते हुए उक्त मुनिराज से इस प्रकार बोले
अस्सा हत्थी मणुस्सा मे, पुरं अंतेउरं च मे । भुंजामि माणुसे भोगे, आणा इस्सरियं च मे ॥१४॥ एरिसे संपयग्गम्मि, सव्वकामसमप्पिए 1 कहं अणाहो भवई, मा हु भंते ! मुसं वए ॥१५॥
अश्वा हस्तिनो मनुष्या मे, पुरमन्तःपुरं च भुनज्मि मानुष्यान्भोगान्, आज्ञैश्वर्यं सम्पदग्रे, समर्पित सर्वकामे
च
ईशे
कथमनाथो
मे |
मे ॥१४॥
1
भवति, मा खलु भवन्त ! मृषा वदतु ॥१५॥ पदार्थान्वयः - अस्सा - घोड़े हत्थी - हस्ती मणुस्सा - मनुष्य मे - मेरे हैं पुरं