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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ एकोनविंशाध्ययनम्
जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाउं होइ सुटुक्करं । तहा दुक्करं करेडं जे तारुण्णे समणत्तणं ॥४०॥ यथाग्निशिखा दीप्ता, पातुं भवति सुदुष्करा । तथा दुष्करं कर्तुं यत्, तारुण्ये श्रमणत्वम् ॥४०॥
पदार्थान्वयः -- जहा - जैसे अग्गिसिहा - अग्निशिखा — आग की ज्वाला दित्ता - दीप्त — प्रचंड पाउं - पीना सुदुक्करं - अति दुष्कर होइ - है तहा - उसी प्रकार दुक्करं - दुष्कर है जे- जो तारुण्णे - तरुण अवस्था में समणत्तणं - संयम का पालन करे- करना ।
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मूलार्थ - जिस प्रकार प्रज्वलित अग्निशिखा - अग्निज्वाला का पीना दुष्कर है, उसी प्रकार युवावस्था में संयम का पालन करना भी अत्यन्त दुष्कर है। टीका — प्रस्तुत गाथा में तरुण अवस्था में संयम के पालन को अत्यन्त कठिन बतलाने के लिए अग्निशिखा का उदाहरण दिया है। जैसे प्रचण्ड अग्निज्वाला का मुख से पान करना असंभव है, उसी प्रकार तरुण अवस्था में संयमवृत्ति का पालन करना भी अत्यन्त दुष्कर है। कारण कि इस अवस्था में इन्द्रियों का दमन करना - मन, वचन और शरीर से शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना कुछ खेल नहीं, प्रत्युत यह काम इतना ही दुष्कर है, जितना कि अग्नि की प्रदीप्त ज्वाला का मुख से पान करना । तात्पर्य यह है कि संयम का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का काम नहीं. किन्तु कोई २ सत्त्वशाली महापुरुष ही इसके यथावत् पालन की शक्ति रखते हैं ।, इसलिए हे पुत्र ! तेरे जैसा सुकुमार बालक इसके योग्य नहीं हो सकता । क्योंकि तरुण अवस्था में संयमवृत्ति का पालन करना प्रचंड अग्निशिखा को मुख से पीने के समान है । सूत्र में 'दत्ता' यह द्वितीया के स्थान पर प्रथमा विभक्ति दी हुई है । तथा लिंगव्यत्यय होने से 'कृ' धातु का प्रयोग भी व्यत्यय किया गया है । अब फिर इसी विषय में कहते हैं
जहा दुक्खं भरे जे, होइ वायरस कोत्थलो । तहा दुक्खं करेडं जे, कीबेणं
समणत्तणं ॥४१॥