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अष्टादशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ ७३३ नीहरंति मयं पुत्ता, पियरं परमदुक्खिया। पियरो वि तहा पुत्ते, बन्धू रायं तवं चरे ॥१५॥ निःसारयन्ति मृतं पुत्राः, पितरं परमदुःखिताः। पितरोऽपि तथा पुत्रान् , बन्धवो राजन् ! तपश्चरेः ॥१५॥
पदार्थान्वयः-नीहरंति-निकाल देते हैं मयं-मरे हुए पियरं-पिता को पुचा-पुत्र परमदुक्खिया-परम दुःखी होकर पियरो वि-पिता भी तहा-उसी प्रकार पुत्ते-पुत्रों को बन्धू-भाई-भाई को । अतः राय-हे राजन् ! तवं-तप चरे-कर ।
मूलार्थ हे राजन् ! पुत्र, मरे हुए पिता को परम दुखी होकर घर से निकाल देते हैं और इसी प्रकार मरे हुए पुत्र को पिता तथा भाई को भाई निकाल देता है । अतः तू तप का आचरण कर।
टीका-मुनि कहते हैं कि हे राजन् ! जब पिता की मृत्यु हो जाती है, तब उसके पुत्र उसे बाहर ले जाते हैं और उसको जलाकर घर को आ जाते हैं । इसी प्रकार पुत्र के मरने पर पिता और भाई की मृत्यु पर भाई करता है । तात्पर्य कि एक मरता है और दूसरा उसको ले जाकर जला आता है, यह संसार के सम्बन्ध की अवस्था है अर्थात् कोई किसी का साथ नहीं देता। ऐसी दशा में तो इनका मोह छोड़कर तप के अनुष्ठान से आत्मा के साथ लगे हुए कर्ममल को जलाकर आत्मशुद्धि करने के अतिरिक्त मुमुक्षु पुरुष का और कोई भी कर्तव्य नहीं होना चाहिए ।
इसके अनन्तर क्या होता है, अब इसी का वर्णन करते हैंतओ तेणऽजिए दव्वे , दारे य परिरक्खिए । कीलन्तिऽन्ने नरा रायं , हतुटुमलंकिया ॥१६॥ ततस्तेनार्जिते द्रव्ये , दारेषु च परिरक्षितेषु । कीडन्त्यन्ये नरा राजन् ! हृष्टतुष्टाऽलंकृताः ॥१६॥
पदार्थान्वयः-तओ-तत्पश्चात् तेण-उसके द्वारा अजिए-उपार्जन किये हुए दव्वे-द्रव्य में य-और दारे-स्त्रियों में परिरक्खिए-सर्व प्रकार से रंक्षित की हुई