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अध्ययन परिचय
यह तीसरा अध्ययन बीस गाथाओं से निर्मित हुआ है। इसका केन्द्रीय विषय है-दुर्लभ अवसरों की पहचान और उनका सम्यक् उपयोग। मोक्ष-प्राप्ति के अवसर दुर्लभ होते हैं। इन अवसरों को चार परम अंगों के रूप में यहां विवेचित किया गया है। इसीलिये इसका नाम 'चतुरंगीय' रखा गया। यह नाम इस अध्ययन की प्रारम्भिक गाथा के प्रथम चरण में प्रयुक्त 'चत्तारि परमंगाणि'-इन दो पदों तथा अंतिम गाथा में प्रयुक्त 'चतुरंग' पद के अनुरूप होने के कारण भी उपयुक्त है।
मिथ्या-दृष्टि से जीवन को देखा जाये तो यह जन्म से प्रारम्भ होकर मृत्यु पर समाप्त हो जाता है। इसकी सभी उपलब्धियां लौकिक व इन्द्रिय-गम्य होती हैं। शारीरिक सुख-दु:ख और सम्बन्ध इसके लिए निर्णायक महत्त्व रखते हैं। इन्हीं पर जीवन आधारित होता है। अत: अपने या अपनों के लिए जीना तथा सुख-साधनों व यश के लिए जीना ही मनुष्य-जीवन का सार है। उसकी सार्थकता है।
सम्यक् दृष्टि जीवन को ऐसे नहीं देखती। जन्म से पहले और मृत्यु के बाद के जीवन तक उसकी पहुंच है। वह देखती है कि अनादि काल से जीव की जन्म-मरण रूप दु:खद संसार-यात्रा हो रही है। इस संसार-यात्रा के चार पड़ाव हैं-नरक, देव, तिर्यंच एवं मनुष्य गति। अपनी बद्ध-कर्म-दशा के अनुरूप इन्हीं चार पड़ावों में जीव भ्रमण करता रहता है। इधर से उधर आता-जाता या भटकता रहता है। नरक तरह-तरह के दु:खों का संगठित रूप है तो देव गति तरह-तरह के सुखों का। नारकियों को दु:खों से फुर्सत नहीं तो देवी-देवताओं को सुखों से। चारों परम अंग जीवात्मा को इन दोनों गतियों में प्राप्त होने असंभव हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच गति में जीव संयम में पराक्रम करने के अयोग्य होता है। केवल मनुष्य गति है, जहां जीव को चारों परम अंग मिल सकते हैं। केवल मनुष्य गति है, जिसमें परम कल्याण की संभावना का उदय हो सकता है।
संसार-यात्रा के चारों पड़ावों में मनुष्य-गति का जीव के लिए निर्णायक महत्त्व है। यह संसार-यात्रा का सबसे महत्त्वपूर्ण दोराहा है, जहां जीव सम्यक्त्व या मिथ्यात्व में से अपने लिए एक राह चुन कर अपनी आगामी यात्रा की दिशा व दशा निर्धारित करता है। अपना
उत्तराध्ययन सूत्र