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इसके अनन्तर अंजनके लगानेसे सचेत हुआ देखकर धर्मबोधकरने निष्पुण्यकसे मीठे शब्दोंमें कहा कि, "हे भद्र! अब इस संतापको शमन करनेवाले जलको पी, जिससे तेरा शरीर भली भांति स्वस्थ हो जाय । " परन्तु "नजाने इसके पीनेसे मेरी क्या दशा होगी," ऐसी शंकासे व्याकुल होकर उस मूर्खने उस जलको नहीं पीना चाहा। यह देख उसके नहीं चाहते हुए भी अतिशय दयालु धर्मबोधकरने वह जल उसका मुंह फाड़कर जबर्दस्ती पिला दिया। क्योंकि वह बहुत ही हितकारी था। उसके पीते ही निष्पुण्यक स्वस्थ सरीखा हो गया । उसे जो बड़ा भारी उन्माद था, वह एक प्रकारसे नष्ट हो गया, व्याधियां हलकी पड़ गई और सारे शरीरमें दाह उत्पन्न होनेसे जो पीड़ा होती थी, वह दूर हो गई। क्योंकि वह जल शीतल था, अमृतके समान मीठा था, चित्तको प्रसन्न करनेवाला था और संतापको नाश करनेवाला था। उस समय सारी इन्द्रियोंके प्रसन्न होनेसे तथा निर्मल चेतनाके उत्पन्न होनेसे वह अपने स्वस्थअन्तरात्माके द्वारा विचारने लगाः-" खेद है कि मुझ पापी तथा महामोहसे घिरे हुए मूर्खने इस अतिशय प्रेमभाव वा वात्सल्य रखनेवाले महात्माको ठग समझ रक्खा था। इस महाभाग्यने मेरे नेत्रोंमें अंजन डालकर मेरी वुरी दृष्टिको दूर कर दी है और इस जलको पिलाकर मेरे हृदयमें उत्कृष्ट स्वस्थता उत्पन्न कर दी है अर्थात् मुझे निराकुल-सुखी कर दिया है । अतएव यह मेरा बड़ा भारी उपकारी है। भला मैंने इसका क्या उपकार किया है ? महानुभावताको छोड़कर इसका प्रवर्तक कोई दूसरा भाव नहीं है। अर्थात् इसने अपनी सज्जनताके कारण ही मेरी भलाई की है।" निष्पुण्यक ऐसा विचार करता था, तो भी उस भिक्षाके बुरे भोजनमें उसकी जो अत्यन्त प्रीति थी, वह किसी प्रकारसे नहीं हटी। क्योंकि उसका चित्त उस भोजनकी ही गाढ़ी भावनामें लवलीन हो रहा था।