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१४८ उत्पन्न हुआ है, ब्रह्मादि देवोंका बनाया हुआ है, प्रकृतिका विकार है, क्षणक्षणमें नष्ट होनेवाला है, विज्ञान मात्र है, और शून्यरूप है, इत्यादि। ऐसे विकल्पोंको आभिसांस्कारिक कहते हैं । और दूसरे प्रकारके विकल्प जिन्हें कि, सहज कहते हैं उन जीवोंके उत्पन्न होते हैं, जो सुखकी चाह करते हैं, दुःखोंको नहीं चाहते हैं, धन दौलतमें परमार्थबुद्धि रखते हैं, और इसलिये उनकी रक्षाने तत्पर रहते हैं, तथा यथार्थ मार्गको नहीं जानते हैं। इन कुविकल्पोंके कारण यह जीव जिनके विषयमें शंका नहीं करना चाहिये, उनके विषयमें शंकां करता है, जो नहीं सोचना चाहिये, वह सोचता है, जों नहीं कहना चाहिये, वह कहता है और जो नहीं करना चाहिये. वह आचरण करता है। इनमें जो आभिसांस्कारिक विकल्प हैं, वे तो ऐसे हैं कि, सुगुरुओंके संगमसे कभी २ दूर हो जाते हैं, परन्तु जो सहज विकल्प हैं, वे जबतक इस जीवकी बुद्धि मिथ्यात्वसे युक्त. रहती है, तबतक किसी भी तरहसे दूर नहीं हो सकते हैं-उत्कष्ट अधिगमज सम्यक्त्वके उत्पन्न होनेपर ही इनसे छुटकारा मिलता है।
और जो कहा है कि, "यद्यपि इस अंजन और जल देनेवाले पुरुपमें निप्पुण्यकको विश्वास हो गया, और उसकी महोपकारिताका वह चिन्तवन करने लगा, तो भी उसे जो अपने कुभोजनसे अतिशय प्रेम था, वह उसकी गाढ़ भावनाकै कारण जरा भी दूर नहीं हुआ।" मो इस जीवके विषयमें इस तरह योजित करना चाहिये:... . . .
यद्यपि ज्ञानावरणीय और दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयोपशमसे तथा सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेसे जीवकी संसारके प्रपंचोंको ही परमार्थ ( वास्तविक ) समझनेवाली वुद्धि नष्ट हो जाती है, जीवादि सप्त तत्त्वोंमें आस्था हो जाती है और परमोंपकारी होनेके