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जो थोड़ासा आरोग्य हो गया था, उसके समान समझना चाहिये। आगे यह जीव उत्कृष्ट ज्ञानके न होनेसे अपना हित करनेकी चेष्टा तब ही करता है, जब गुरुमहाराज प्रेरणा करते हैं । जब उनकी प्रेरणा नहीं होती है, तब यह सत्कर्तव्य करनेमें शिथिल हो जाता है, और आरंभ परिग्रह करनेमें वारंवार अतिशय प्रवृत्ति करने लगता है। उस समय रागादि भावोंका उल्लास वा बढ़ाव होता है
और नाना प्रकारकी मानसिक तथा शारीरिक वाधाएँउत्पन्न होती . हैं । उसकी इस अवस्थाको भिखारीकी विहलता समझनी चाहिये। भगवान् गुरुमहाराजके लिये जिस तरह यह जीव अच्छी प्रेरणाके द्वारा पालन करने योग्य वा सुमार्गपर चलाने योग्य है, उसी प्रकारसे और बहुतसे जीव भी हैं । इसलिये समस्त जीवोंपर अनुग्रह करनेमें तत्पर रहनेवाले वे गुरुमहाराज इस जीवको कभी २ ही प्रेरणा कर सकते हैं, शेष समयमें यह स्वतंत्र वा स्वच्छन्द रहता है; इसलिये उस समय यह अपना चाहे जो अहित करता है कोई रोकनेवाला नहीं रहता है । इससे उसे पहिले कहे हुए विकार हो जाते हैं । जीवकी इस अवस्थाको तद्दयाके पास न रहनेके कारण भिखारीके अपथ्य सेवन कर लेनेके और उसके रोगोंके फिर उभड़ आनेके समान समझना चाहिये।
इसके पश्चात् भिखारीने धर्मवोधकरसे अपना सारा वृत्तान्त निवेदन करके कहा कि, " हे नाथ ! कोई ऐसा यत्न कीजिये, जिससे मुझे स्वप्नमें भी कभी पीड़ा न हो । " रसोईपतिने कहा कि, " यह तया व्यग्रताके कारण अर्थात् दूसरोंके उपकारमें भी उलझी . रहनेके कारण तुझे अपथ्यसेवन करनेसे अच्छी तरह नहीं रोक सकती है । इसलिये तेरे लिये एक दूसरी व्यग्रतारहित परिचारिका किये