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'यथा नाम तथा गुणवाली' उपमितिभवप्रपंचा नामकी कथा रची है, जो उत्तम शब्दों और अर्थोके न होनेके कारण सुवर्णपात्री वा रत्नपात्री नहीं किन्तु ज्ञानदर्शनचारित्ररूप औपधियोंसे भरी हुई होनेके कारण भिखारीकी काष्ठपात्री अर्थात् कठौतीके समान है।
ऐसी स्थितिमें हे भव्यजनो! आप लोग मेरी एक प्रार्थना सुनें:-" जैसे उस भिक्षुककी राजप्रांगणमें (राजमहलके आंगनमें) रक्खी हुई तीनों औषधियां ग्रहण करके उन्हें भली भांति सेवन करनेवाले रोगी निरोगी हो जाते हैं और उन औषधियोंके ग्रहण करनेसे भिखारीका उपकार होता है अर्थात् उसकी दान देनेरूप इच्छाकी पूर्ति होती है, इसलिये उन रोगियोंको उचित है कि उक्त
औपधियोंको ग्रहण करें; उसी प्रकारसे भगवानकी दृष्टिजनित गुरुमहाराजकी कृपासे मेरे हृदयमें जिस सद्बुद्धिका आविर्भाव हुआ है, उससे मैं इस कथामें जिस सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूप रत्नत्रयका वर्णन करूंगा, उसका भली भांति सेवन करनेसे सेवन करनेवाले प्राणियोंके रागादि भावरोग अवश्य नष्ट हो जावेंगे। क्योंकि " न खलु वक्तर्गुणदोषानुपेक्ष्य वाच्याः पदार्थाः स्वार्थसाधने प्रवर्तन्ते" अर्थात् वर्णन किये हुए पदार्थ वर्णन करनेवालेके गुणदोपोंकी अपेक्षा करके स्वार्थसाधनमें प्रवर्त नहीं होते हैं। तात्पर्य यह कि, जो विपय कहा हो, उस विपयके शब्द ही लाभदायक होते हैं, कहनेवालेके गुणदोपोंसे लाभका कोई सम्बन्ध नहीं रहता है। यदि कोई पुरुष स्वयं भूखसे दुर्वल हो रहा हो, परन्तु वह अपने स्वामीके लड्डुओंको उसकी आज्ञासे उसके परिवारके लोगोंको बतला देवे और उनके साम्हने परोस देवे, तो क्या उनसे परिवारके लोगोंकी तृप्ति नहीं होगी ? बतलानेवालेके भूखे होनेके कारण क्या