Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

View full book text
Previous | Next

Page 207
________________ १९९ वाला कोई पात्र नहीं मिलता है, तब सद्बुद्धिपूर्वक विचार करनेसे इसे मालूम होता है कि, " मौनका अवलम्बन करके बैठे रहनेसे दूसरोंको ज्ञानादिका दान नहीं किया जा सकता है और वास्तवमें . विचार किया जाय तो ज्ञानादिकी प्राप्ति करा देनेके सिवाय संसारमें और कोई उपकारका कार्य नहीं है । जिस पुरुषको सन्मार्गकी प्राप्ति हुई हो और यदि वह यह चाहता हो कि, जन्मजन्मान्तरमें भी मुझे सन्मार्ग मिलता जाय, तो उसे चाहिये कि निरन्तर परोपकार करनेमें तत्पर रहे। क्योंकि परोपकार करनेहीसे पुरुपके गुणोंका उत्कर्ष होता है। यदि परोपकार सम्यक् प्रकारसे (भलीभांति) किया जाय, तो वह धीरताको बढ़ाता है, दीनताको कम करता है, चित्तको उदार बनाता है, पेटा पनको छुड़ाता है, मनमें निर्मलता लाता है और प्रभुताको प्रगट करता है। इसके पश्चात् परोपकार करनेमें तत्पर रहनेवाले पुरुपका पराक्रम (वीर्य) प्रगट होता है, मोहकर्म नष्ट होता है, और दूसरे जन्मोंमें भी वह उत्तरोत्तर क्रमसे अधिकाधिक सुन्दर सन्मार्गोंको पाता है। तथा ऊपर चढ़कर फिर कभी नीचे नहीं गिरता है। इसलिये ज्ञानदर्शनचारित्रका स्वरूप प्रकाशित करनेके लिये जितना अपनेसे बन सके, उतना स्वयं उपत करके यत्न करना चाहिये । किसीकी प्रार्थनाकी अपेक्षा नहीं करना चाहिये अर्थात् यह नहीं सोचना चाहिये कि, जब कोई हमसे आकर पूछेगा, तब हम बतलावेंगे।" __ परोपकार करनेके इस सुन्दर सिद्धान्तको समझकर यह भगवानके मतमें महाव्रतीके रूपसे रहनेवाला जीव देशकालका विचार करके जुदे २ नाना स्थानोंमें भ्रमण करता है और बड़े भारी विस्तारसे भव्य जीवोंके लिये ज्ञानदर्शनचारित्ररूप मार्गका प्रतिपादन करता है इसे सपुण्यककी औपधिदान करनेकी घोषणाके समान समझना चाहिये

Loading...

Page Navigation
1 ... 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215