Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

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Page 206
________________ १९८ (आवाज लगा लगा कर.) औपधियां वितरण करना चाहिये।" तदनुसार सपुण्यक उस राजकुलमें खूब ऊंचे स्वरसे घोपणा करता हुआ भ्रमण करने लगा कि "हे लोगो। मेरी इन तीन औपधियोंको लो, ग्रहण करो।" उसकी यह घोषणा सुनकर जो उसीके समान तुच्छप्रकृतिके लोग थे, उन्होंने तो वे औषधियां ग्रहण की, परन्तु जो महत्पुरुष थे-उच्च प्रकृतिके थे, उन्हें वह प्रायः हास्यके ही योग्य प्रतिभासित हुआ और उन्होंने उसकी अनेक प्रकारसे हँसी उड़ाई वा निन्दा की। निदान उसने यह सब वृत्तान्त सद्बुद्धिसे कहा । वह बोली कि, "हे भद्र ! ये लोग तुम्हें तुम्हारे पहिलेके भिखारीपनेका स्मरण करके अनादरकी दृष्टिसे देखते हैं और इसलिये तुम्हारी दी हुई औषधियोंको नहीं लेते हैं । अतएव यदि तुम्हारी यह इच्छा हो कि, इन औषधियोंको सब ही लोग लेवें, तो मेरे मनमें इसका यह उपाय झलका है कि, तुम एक बड़े भारी लकड़ीके पात्रमें ( कठौतीमें ) इन तीनों औषधियोंको रखकर उसे राजभवनके आंगनमें ऐसी जगह रख दो जहां सब लोग अच्छी तरहसे देख सके और तुम स्वयं एक ओर शान्तितासे बैठ जाओ। फिर तुम्हें औपधिदान करनेकी चिन्ता नहीं रहेगी। क्योंकि लोग यह तो जानेंगे नहीं कि, ये किसकी औषधियां है-ये तो सबके लिये साधारण हैं अर्थात् इन्हें सब कोई ग्रहणकर सकता है-ये सबके लिये रक्खी गई हैं, ऐसा समझकर सब ही लोग उन्हें लेने लगेंगे। और ऐसा करनेसे यदि एक ही सद्गुणी सुपात्र पुरुष उन्हें ले जायगा, तो उससे तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जायगा।" यह सुनकर सपुण्यकने सब वैसा ही किया । इस जीवके सम्बन्धमें भी ऐसा ही समझना चाहिये । यथा, जब इस जीवको महाव्रतीकी अवस्थामें ज्ञानादिका ग्रहण करने

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