Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

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Page 204
________________ १९६ वह सपुण्यक दरिद्री यद्यपि यह निश्चय कर चुका था कि, मैं तीर्थजलादि औषधियोंका दान करूं, परन्तु उसे यह अभिमान था कि, म सुस्थित महाराजादिका प्यारा हूं, इसलिये वह यह सोचता था कि, “यदि मुझसे कोई आकर प्रार्थना करेगा, तो मैं औपधियां दूंगा, नहीं तो नहीं।" और इस अभिप्रायसे देनेकी इच्छा होनेपर भी वह याचना करनेवालोंकी राह देखा करता था। बहुत कालतक उसने प्रतीक्षा की, परन्तु कोई भी नहीं आया । क्योंकि उस. राजमंदिरमें जो लोग पहिलेसे थे, उनके पास तो इससे भी अच्छी औषधियां थीं और जो मनुष्य उसी समय मन्दिरमें प्रवेश करनेके कारण उन औषधियोंसे रहित थे, उन्हें भी औषधियोंकी कमी नहीं थी-वे भी वहुत सी पा लेते थे। इससे वह दरिद्री चारों दिशाओंकी ओर देखता हुआ बैठा रहता था, परन्तु औषधियोंको लेनेके लिये उसके समीप कोई भी नहीं आता था । इस जीवके विषयमें भी ऐसा ही समझना चाहिये; दूसरोंको ज्ञान दर्शन चारित्रका दान करनेकी इच्छा होनेपर भी जीव विचार करता है कि, "मुझपर भगवानकी दृष्टि पड़ी है, धर्माचार्य महाराज मुझे बहुत मानते हैं, मुझपर उनकी श्रेष्ठ अनुग्रह करनेमें तत्पर रहनेवाली दया सदा ही रहती है, सदबुद्धिका मेरे हृदयमें कुछ २ विकास हो गया है, और सब लोग मेरी प्रशंसा करते हैं, इससे संचमुच ही मैं पुण्यवान् होनेके कारण लोकशिरोमाणि हो गया हूं।" इस प्रकारके विचारसे जीवको मिथ्याभिमान उत्पन्न होता है । यह इस वातका बहुत अच्छा उदाहरण है कि, "सर्वथा निर्गुणी पुरुषका भी यदि महापुरुष गौरव करते हैं, तो उसके हृदयमें वड़ा भारी अभिमान हो जाता है ।" यदि ऐसा

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