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और पूर्वोपार्जित कर्मोंका बहुत बड़ा भवप्रपंच ( संसारका विस्तार ) ये सब बातें बतलाई गई हैं।
संसारेऽत्र निरादिके विचरता जीवेन दुःखाकरे, जैनेन्द्रमतमाप्य दुर्लभतरं ज्ञानादिरत्नत्रयम् । लब्धे तत्र विवेकिनादरवता भाव्यं सदा चईते,
तस्यैवाद्यकथानकेन भवतामित्येतदावेदितम् ॥ अर्थात्-इस दुःखकी खानिरूप अनादिसंसारमें भ्रमण करते हुए जीवको जिनेन्द्रभगवानके धर्मकी प्राप्ति होनेपर भी सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयधर्मका पाना अत्यन्त दुर्लभ हैं । जो लोग विवेकी हैं और विनयी हैं, वे उक्त दुर्लभ रत्नत्रयको पाकर अपने भव्यत्त्वभावको निरन्तर बढ़ाते रहते हैं । ग्रन्थकर्ता । कहते हैं कि, इस ग्रन्थकी प्रथमकथामें आपसे इसी विषयका विस्तारके साथ निवेदन किया गया है। इस प्रकार उपमितिभवप्रपंचाकथाके हिन्दीभापानुवादमें पीठवन्ध नामका पहिला प्रस्ताव
पूरा हुआ।