Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

View full book text
Previous | Next

Page 212
________________ २०४ और पूर्वोपार्जित कर्मोंका बहुत बड़ा भवप्रपंच ( संसारका विस्तार ) ये सब बातें बतलाई गई हैं। संसारेऽत्र निरादिके विचरता जीवेन दुःखाकरे, जैनेन्द्रमतमाप्य दुर्लभतरं ज्ञानादिरत्नत्रयम् । लब्धे तत्र विवेकिनादरवता भाव्यं सदा चईते, तस्यैवाद्यकथानकेन भवतामित्येतदावेदितम् ॥ अर्थात्-इस दुःखकी खानिरूप अनादिसंसारमें भ्रमण करते हुए जीवको जिनेन्द्रभगवानके धर्मकी प्राप्ति होनेपर भी सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयधर्मका पाना अत्यन्त दुर्लभ हैं । जो लोग विवेकी हैं और विनयी हैं, वे उक्त दुर्लभ रत्नत्रयको पाकर अपने भव्यत्त्वभावको निरन्तर बढ़ाते रहते हैं । ग्रन्थकर्ता । कहते हैं कि, इस ग्रन्थकी प्रथमकथामें आपसे इसी विषयका विस्तारके साथ निवेदन किया गया है। इस प्रकार उपमितिभवप्रपंचाकथाके हिन्दीभापानुवादमें पीठवन्ध नामका पहिला प्रस्ताव पूरा हुआ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 210 211 212 213 214 215