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२०२ वे लड्डू क्षुधाकी निवृत्ति नहीं करेंगे ? अवश्य करेंगे-अपना सन्तुष्ट करनेता गुण कभी नहीं छोड़ेंगे। इसी प्रकारसे वताके दोपले वतन्य विषयके वलपती हानि नहीं होती है। अभिप्राय यह है कि, यद्यपि मैं स्वयं ज्ञानदर्शनचारित्रसे परिपूर्ण नहीं हूं, तो भी भगवानके आगमके अनुसार जो मैंने ज्ञानादिका स्वरूप कहा है, उसे जो भन्यप्राणी ग्रहण करेंगे वे रागादिरूप भूसकी शान्तिले अवश्य ही स्वस्थ हो जायेंगे। क्योंकि उनका स्वल्प ही ऐसा है-मेरे कारण वे अपना स्वरूप नहीं छोड़ देवेगे।"
"यद्यपि भगवानके सिद्धान्तोंका एक एक पद ही ऐसा है कि , यदि उसे कोई भावपूर्वक श्रवण कर लेता है तो उसके सारे रागादि रोग जड़से उखड़ जाते हैं और उनका श्रवण आपके स्वाधीन है अर्थात् आप चाहें तो उन पड़ोंको जब चाहे तब सुन सकते हैं और इसी प्रकारसे पूर्व कालके महापुरुषोंकी रची हुई क्याओंके भावपूर्वक श्रवण करनेसे भी रागादि दोष सहज ही नष्ट हो सकते हैं। परन्तु नेरी इच्छा हुई हैं कि मैं इस (ग्रन्यरचनारूप) उपायसे संसार सागरके पार हो जाऊं, इसलिये आप सब लोगोंच्ने नुझपर अतिशय करुणामय होकर इस कयाका भी श्रवण करना चाहिये।" (ग्रन्थकर्त्ताने यहां अपनी नन्त्रता निरभिमानता और कोनलताकी पराकाष्ठा बतला दी है। देखिये वे अपने ग्रन्यकी प्रशंसा करके उसके पड़ने सुननेका आग्रह नहीं करते हैं, किन्तु अपने पर दया कराके अपना लाम बतलाकर निवेदन करते हैं कि, से सुनो!)
__ उपसंहार। पहिले कही हुई निप्पुण्यकवी कयाके प्रायः प्रत्येक पड़का दान्तिक अर्थ ( उपनय ) इसमें कह दिया गया है। यदि बीत्र २