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तथा धन
विना सोत्र
अविद्याका
और में दीक्षा
१९० अतिशय संवेग हो जाता है, इसलिये यह एकान्तमें बैठकर अपने मनमें विचार करता है कि,-"अहो ! जिनके लिये मैं परमार्थको जानकर अर्थात् वस्तुतत्त्वको समझकर भी अपने कार्यकी ( आत्मोन्नति ) अवहेलना करके घरमें रहता हूं,उन कुटुम्बी जनोंका भी तथा धन शरीरादिका भी हाय ! यह परिणाम है यंह दशा है ! तो भी मुझ विना सोचे समझे करनेवालेसे इनका स्नेह तथा मोह नहीं छूटता है। सचमुच यह अविद्याकी ही लीला हैं, जो ऐसे कुटुम्ब धनादिमें भी मेरा चित्त उलझा हुआ है और मैं दीक्षा नहीं ले सकता हूं। भला अब मैं अपने प्रयोजनसे विरुद्ध कार्य करनेमें तत्पर होकर अपने आत्माको क्यों ठगू ? अर्थात् इस गृहस्थाश्रममें क्यों फंसा रहूं इन सारे अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहोंको जो कि कीचड़के समान फँसाए रहनेवाले हैं और जिनका रेशमके कीड़ेके समान आपको कैद कर रखने मात्र फल है, अब मैं छोड़ देता हूं। यद्यपि जब जब मैं विचार करता हूं, तब तब मेरे इस · विपयोंके स्नेही चित्तमें ऐसा ही भास होता है कि, यह समस्त परिग्रहका त्याग दुप्कर (कठिन ) है, तो भी अब मुझे इसका त्याग कर ही देना चाहिये, पीछे “यद्भाव्यं तद्भविष्यति' अर्थात् जो होनेवाला होगा, सो होगा । अथवा इसमें होना ही क्या है ? कुछ भी नहीं । यदि कुछ होना होता, तो जब इस असुन्दर परिग्रहको किंचित् छोड़ा था, तब ही होता। परन्तु इसके छोड़नेसे तो चित्तमें उपमारहित प्रमोद ही उत्पन्न होता है। इसलिये जब तक जीव इस परिग्रहरूपी कीचड़में हाथीके समान फँसा रहता है, तब ही तक , इसे यह दुस्त्यज ( कठिनाईस भी जो न छूट सके) जान पड़ता है, परन्तु जब इस कीचड़से निकल जाता है, तब विवेक होनेके कारण