Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

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Page 201
________________ १९३ देखनेसे भली भांति निश्चय होता है कि, परमात्माकी इसपर मुदृष्टि हुई है और धर्माचार्य महाराजके चरणोंका प्रसाद इसे प्राप्त हुआ है । इसीसे इसके चित्तमें ऐसी सुन्दर बुद्धिका आविर्भाव हुआ है जिससे कि इसने सम्पूर्ण अन्तरंग और वहिरंग परिग्रहोंका त्याग कर दिया, सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयका ग्रहण किया और रागादि विकारोंका प्रायः नाश कर डाला। बड़े पुण्यशालियोंके ही ऐसी घटनाएं होती हैं, इसलिये उस समय लोगोंने इसका 'सपुण्यक' ऐसा सयुक्तिक वा सार्थक नाम प्रचलित कर दिया। ___ आगे कथामें कहा है कि, अब अपथ्यका सेवन नहीं करनेसे उस दरिद्रीके शरीरमें रोगपीड़ा नहीं होती थी और यदि कभी पूर्वके विकारोंसे होती थी, तो बहुत थोड़ी होती थी और सो भी शीघ्र ही मिट जाती थी। पूर्वोक्त तीर्थजलादि तीन औषधियोंके निरन्तर सेवन करनेसे उसके धैर्य बल आदि गुण बढ़ते थे । यद्यपि रोगोंकी सन्तति बहुत होनेके कारण अभी तक वह सर्वथा निरोग नहीं हुआ था, तो भी उसके स्वास्थमें पहिलेकी अपेक्षा बहुत बड़ा अन्तर पड़ गया था और इसी लिये कहा था कि: यः प्रेतभूतः प्रागासीदाढवीभत्सदर्शनः। ___ न तावदेश सम्पन्नो मानुपाकारधारकः ॥ अर्थात् " पहिले जो पिशाचके समान अतिशय घिनौना दिखता था, वह .अत्र मनुष्यके समान आकारका धारण करनेवाला हो गया।" ये सब बातें जीवके विषयमें समानरूपसे घटित होती हैं । यथा;. इस जीवको गृहादि झंझटोंका भावपूर्वक त्याग करनेसे रागादि रोगोंकी पीड़ा नहीं होती है । क्योंकि कारणके अभावसे कार्यका भी अभाव होता है । गृहआदि परिग्रह कारण हैं और रागादि

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