Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

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Page 194
________________ १८६ दुर्लभदीक्षाको पाकर यह फिर भी विषयादिकोंकी अभिलापा करेगा, तो प्रतिज्ञा किये हुए कार्यको नहीं करनेसे और अतिशय चित्तसंक्लेशके कारण रागादिदोषोंकी बहुत ही वृद्धि होनेसे यह देशविरतिमें (गृहस्थावस्थामें ) होनेवाली कर्मोकी लघुताको भी नहीं कर सकेगा। जिस समय यह जीव उपर्युक्त प्रकारसे विचार करता है, उसी समय चारित्रमोहनीय कर्मोंके वर्तमान अंशोंसे उसकी सर्व परिग्रहके त्याग करनेकी बुद्धि अस्तव्यस्त होकर फिर भी डोलने लगती है। तत्र वीर्यकी ( पराक्रमकी ) हानि होती है और उससे यह इस प्रकारके झूठे अवलम्बनका आश्रय लेता है, अर्थात् बहाने बनाता है कि यदि मैं दीक्षा ले लूंगा, तो यह मेरा मुख देखकर जीनेवाला कुटुम्ब दुखी होगा - मेरे विरहमें यह नहीं रह सकेगा । बेसमयमें इसे कैसे छोड़ दूं ? यह मेरा बेटा अभी तक बलहीन है (नाबालिग है ), लड़की विना व्याही है, वहिनका पति परदेशको गया है अथवा मर गया है, इसलिये इसका मुझे पालन करना चाहिये । यह भाई है, सो अभीतक घरका भार उठाने योग्य नहीं हुआ है, माता पिता हैं सो इनका शरीर वृद्धावस्थाके कारण बहुत ही जर्जरा हो गया है और मुझपर इनका अतिशय स्नेह है, और मेरी स्त्री है, सो गर्भवती है । इसका मुझपर बहुत ही दृढ़ अनुराग है, इसलिये यह मेरे विना कभी नहीं जीवेगी । फिर मैं ऐसे निराधार कुटुम्बको कैसे छोड़ दूं? मेरे पास बहुतसाधन है और बहुत लोग मेरे ऋणी ( कर्जदार ) हैं । जिसकी भक्तिकी अच्छी तरहसे परीक्षा कर ली है ऐसा मेरा यह परिवार और बन्धुजनोंका समूह है। इसका पालन करना मेरा कर्तव्य है ।

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