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१८५ तो जो रोग क्षीण तथा शान्त हो गये हैं, वे फिर कुपित हो जावेंगे।" सद्बुद्धिकी ये बातें सुनकर भिखारीकी बुद्धि हिंडोलेसरीखी झूलने लगी। वह निश्चय नहीं कर सका कि, 'अब मैं क्या करूं ।' इस जीवके सम्बन्धमें इसकी योजना इस प्रकारसे होती है:
जब इस जीवका स्नेह सांसारिक पदार्थोंसे टूट जाता है और ज्ञानादिके सेवनमें अतिशय अनुरक्त हो जाता है, तब गृहस्थावस्थामें रहनेपर भी यह संतोपसुखके स्वरूपका ज्ञाता हो जाता है। उस समय अविनाशी प्रशमसुखकी वांछासे इसे सर्व संगका (परिग्रहका) परित्याग करनेकी बुद्धि उत्पन्न होती है और तब यह अपनी सद्बुद्धिके साथ अच्छी तरहसे आलोचना करता है-विचार करता है
कि, मैं परिग्रहका सर्वथा त्याग कर सकूँगा या नहीं ? तव सदू: वुद्धिके प्रसादसे यह जानता है कि, अनादिकालके अभ्यासके कारण
मेरा जीव विषयादिकोंमें लवलीन हो रहा है, इसलिये यदि इसने उस भागवती दीक्षाको धारण कर ली जो कि सारे दोपोंसे रहित होती है और फिर अपनी अनादिरूढ कर्मोंसे उत्पन्न हुई प्रकृतिका अनुसरणकरके (पुरानी आदतसे) विपयादिकोंको चाहकर आत्माकी केवल विडम्बना ही की, तो इससे तो यही अच्छा है कि, वह (निर्ग्रन्थदीक्षा) पहिलेसे ही अंगीकार न की जाय। क्योंकि विना तीव्र अभिलापाके विषयादिकोंका सेवन करनेवाला गृहस्थ भी ज्ञानादि आचरण जिसमें प्रधान हैं, ऐसा द्रव्यस्तव करके कर्मरूपी अजीर्णको नष्ट कर सकता है और उससे रागादि भावरोगोंको क्षीण करके कर्मोंको हलका कर सकता है। इस जीवने अपने अनादिकालके संसारपरिभ्रमणमें . पहिले किसी भी समय निर्ग्रन्थदीक्षा नहीं प्राप्त की है, इसलिये यह अत्यन्त दुर्लभ है। सो यदि इस