Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

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Page 195
________________ १८७ इसलिये मैं आसामियोंसे रुपया उगाकरके ( वसूल करके ), उसको परिवारके लोगोंको सौप करके, धर्ममार्गसे धनकी व्यवस्था करके, और माता पितासे प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा लेकरके; इस तरह गृहस्थके सारे काम करके दीक्षा लूंगा। अभी इस बेसमयकी बकबकसे क्या लाभ है ? और यह निर्ग्रन्यदीक्षा लेना साक्षात् स्वयंभूरमण समुद्रका भुजाओंसे तरना है, गंगाके पूरके सम्मुख चलना है, लोहे के जौ चबाना है, लोहे के गोलका निगलना है, कम्बलका सूक्ष्म पवनसे भरना है, सुमेरुपर्वतका मस्तकसे फोड़ना है, समुद्रका कुशाके अग्रभागसे मापना हैं, तेलसे लबालब भरे हुए कटोरेका एक बूंद भी गिराये विना सौ योजन तक दौड़ते हुए ले जाना है, आठ चक्रोंके भीतर दाहिने वाँये निरन्तर भ्रमणं करती हुई पुतलीके वाँयें नेत्रको वाणसे छेद देनेके समान हैं, और तेजकी हुई तलवारकी धारपर 'पैर कहां पड़ता है' इसका विचार किये विना चलनेके समान है । क्योंकि इसमें परीपोंका सहन करना चाहिये, देवादिकोंके किये हुए उपसके सम्मुख होना चाहिये, सारे पापोंको छोड़ना चाहिये, सुमेरु पर्वतके समान भारी शीलका (सप्तशीलका ) भार वहन करना चाहिये, आत्माको सदा 'माधुकरी वृत्तिसे वर्ताना चाहिये, देहको कठोर तपसे तपाना चाहिये, संयमको आत्मीयस्वभाव बनाना चाहिये, रागादिकोंको जड़से उखाड़के फेंक देना चाहिये, हृदयके अंधकार के फैलावको नष्ट कर देना चाहिये। अधिक कहने से क्या अप्रमत्त चित्तसे महामोहरूप वेतालको भी हनन करना चाहिये । I १ जिस तरहं मधुकर (भौंरा) सब फूलोंमेंसे रस ले लेता है परन्तु किसी फूल - को कष्ट नहीं पहुंचाता है, उसी प्रकारसे जैनमुनि श्रावकोंके यहां उन्हें जरा भी कष्ट नहीं पहुंचाकर आहार लेते हैं । इस भिक्षावृत्तिको माधुकरीवृत्ति कहते हैं।

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