Book Title: Upmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Nathuram Premi

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Page 192
________________ १८४ आदि तीनों औषधियोंका सेवन । इन दोनों कारणोंको उसने युक्तिपूर्वक समझा भी दिये । इस जीवके सम्बन्धमें भी यह कथन बरावर घटित होता है;-अपनी सद्बुद्धिके साथ पर्यालोचना करनेसे वा उससे पूछनेसे ही जीव समझता है कि, मुझे जो यह शरीर और मनकी निवृत्तिरूप स्वाभाविक मुखकी प्राप्ति हुई हैं, सो विषयादिकोंकी अभिलाषाका त्याग करनेसे और सम्यग्दर्शनादिका सेवन करनेसे हुई है। और पूर्वके अभ्यासके कारण यद्यपि यह जीव विषयादि सेवन करनेमें प्रवृत्त रहता है, तो भी सद्बुद्धिसहित होनेके कारण इस प्रकार विचार करता है कि, मुझ सरीखे पुरुषको ऐसा करना ठीक नहीं है । इससे गृद्धता नहीं होती है, गृद्धताके नहीं होनेसे चित्तकी लालसाकी निवृत्ति होती है और उससे प्रशमसुखकी प्राप्ति होती है। इसे सद्बुद्धिका युक्तिपूर्वक समझाना समझना चाहिये। • आगे उस सुखरूपी रसका पान करनेवाले दरिद्रीने अपनी परिचारिकाके समक्ष कहा कि, "हे भद्रे! क्या अब मैं इस कुभोजनको सर्वथा फेंक दूं, जिससे मुझे वह आत्यन्तिक सुख प्राप्त हो जाय जिसमें दुःखका लेश भी नहीं है ?" उसने कहा, "छोड़ दो तो अच्छा ही है, परन्तु अच्छी तरहसे विचार करके छोड़ना। क्योंकि यह आपकी अत्यन्त प्यारी वस्तु है ! यदि छोड़ देनेपर भी इससे आपका स्नेह नहीं छूटा, तो उससे इसका नहीं छोड़ना ही अच्छा है। क्योंकि स्नेह छोड़े विना कुभोजनके छोड़ देनेसे इस समय कुमोजनका सेवन करते हुए भी तीन लोलुपताके अभावमे और तीर्थनलादि औषधियोंके सेवनसे जो आपके रोगोंकी क्षीणता दिखलाई देती है, वह भी बहुत दुर्लभ हो जायगी। और सर्वथा त्याग करके फिर आप यदि इसका स्मरण मात्र भी करेंगे,

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