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इस लिये वह इसहीके पास सदा रह नहीं सकती थी। इससे उसकी अनुपस्थितिमें भिखारी भी स्वच्छन्दतासे अपथ्यसेवन करता था और फिर विकारोंसे पीड़ित होता था ।" इस जीवके सम्बन्धमें भी ये सब बातें घटित होती हैं ।
गुरुमहाराजकी जो जीवविषयक दया है, वह बहुत ही प्रधान कार्यकी करनेवाली है, इस लिये उसे पृथकरूपमें कर्त्री कहा है। अभिप्राय यह है कि, यद्यपि इस प्रकरण में कर्त्ता गुरुमहाराज हैं, उनकी दया उनसे कोई पृथक् व्यक्ति नहीं है, तो भी सर्वत्र गुरुमहाराजकी दयाकी ही प्रधानता रक्खी गई है, इस लिये उसकी एक पृथक् पात्रके रूपमें कल्पना कर ली है ।
वे गुरुमहाराज जिनका कि चित्त दयासे व्याप्त रहता है, जब इस प्रमादी जीवको अनेक प्रकारकी पीड़ाओंकी व्याकुलतासे रोता हुआ देखते हैं, तब इस प्रकार उलाहता देते हैं कि, "हे भद्र । हमने तो तुझसे पहिले ही कह दिया है कि, जिनका चित्त विषयवासनाओं में आसक्त रहता है उन्हें मानसिक संतापोंकी कमी नहीं रहती है और जो धनके कमाने और रखवाली करनेमें तत्पर रहते हैं, नाना प्रकारकी विपत्तियां उनसे कुछ दूर नहीं रहती हैं - वे हमेशा सिरपर खड़ी रहती हैं । परन्तु तेरी तो इन ही विषयोंमें बहुत गहरी प्रीति है - तू इनहीमें मग्न रहता है और इस ज्ञान दर्शन चारित्ररूप रत्नत्रयको जो कि सम्पूर्ण क्लेशरूप महा अजीर्णका नाश करनेवाला और उत्कृष्ट स्वास्थ्यका करनेवाला है, तू अनादर दृष्टिसे देखता है, तब बतला कि, हम क्या करें ? यदि तुझसे कुछ कहते हैं, तो तू दुखी होता है । इसलिये सत्र वृतान्तको जानते हुए और तुझे अनेक उपद्रवोंसे घिरा देखते हुए भी हम चुप हैं । इसके सिवाय