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१७४ यह देव और मनुष्यभवमें उत्पन्न हुआ जीव अपनी इस धन विपयादिकी विभूतिको पाकर हर्पित होता है। वेचारा यह नहीं सोचता है कि, यह धन विषयादिकी विभूति मुझे धर्मके महात्म्यसे प्राप्त हुई है, तब इसमें हर्पित होनेकी क्या बात है ? मुझे तो इसके कारणभूत प्रभावशाली धर्मका ही सेवन करना चाहिये । इस प्रकार यह वास्तविक स्वरूपको न जाननेवाला और इसलिये धनविषयादिमें मनको उलझानेवाला जीव ज्ञान दर्शन और चारित्रको शिथिल करता है। और जानता हुआ भी मोहके कारण नहीं जाननेवालेके समान व्यर्थ ही समयको खोता है । इस प्रकार धनादि पदार्थोम उलझे हुए और धर्म क्रियाओंमें मन्द रुचिवाले जीवके रागादि भावरोग बहुत काल बीत जानेपर भी नष्ट नहीं होते हैं। केवल गुरुमहाराजकी प्रेरणासे मन्द वैराग्यसे भी जो उत्तम आचरण (व्रतपालन) करता है, उससे इतना गुण होता हैं अर्थात् उसके भावरोग कुछ क्षीण हो जाते हैं।
यह जीव अपने आत्मस्वरूपका ज्ञान न होनेसे विषयधनादिमें बहुत ही गीधता है, जिससे कि वहुत २ परिग्रह संग्रह करता है, बड़ी २ उलझनोंका व्यापार प्रारंभ करता है, खेती आदि करता है,
और इनके समान और भी अनेक आरंभ करता है। तब वे रागादि भावरोग अपने प्रवल सहकारी कारणोंके मिलनेसे नाना प्रकारके विकार प्रगट करते हैं। उस समय अनादरपूर्वक किये हुए आचरण रक्षक नहीं होते हैं। उन विकारोंसे यह कभी एकाएक शूल उठनेके समान धन खर्च करनेकी चिन्तासे पीड़ित होता है, कभी दूसरोंकी ईर्षारूप दाहसे जलता है, कभी अपना सारा धन हरा जानेसे मुमूर्पके समान मूर्छाका · अनुभव करता है, कभी कामज्वरके